दोहा सलिला
संजीव
*
हिंदी जगवाणी बने, वसुधा बने कुटुंब
संजीव
*
हिंदी जगवाणी बने, वसुधा बने कुटुंब
सीख-सीखते हम रहें, सदय रहेंगी अम्ब
पर भाषा सीखें मगर, निज भाषा के बाद
देख पड़ोसन भूलिए, गृहणी- घर बर्बाद
हिंदी सीखें विदेशी, आ करने व्यवसाय
सीख विदेशी जाएँ हम, उत्तम यही उपाय
तन से हम आज़ाद हैं, मन से मगर गुलाम
तन से हम आज़ाद हैं, मन से मगर गुलाम
अंगरेजी के मोह में, फँसे विवश बेदाम
हिंदी में शिक्षा मिले, संस्कार के साथ
शीश सदा' ऊंचा रहे, 'सलिल' जुड़े हों हाथ
अंगरेजी शिक्षा गढ़े, उन्नति के सोपान
भ्रम टूटे जब हम करें, हिंदी पर अभिमान
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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!