यह आलेख आनंद राणा जबलपुर द्वारा फेसबुक वॉल पर प्रस्तुत किया है। उनकी अनुमति के साथ ब्लॉग पर प्रकाशित किया जा रहा है
अवतरण 11अप्रैल सन् 1827 पुणे, पिता : गोविंदराव फुले,
माता : विमला बाई, पत्नी : सावित्रीबाई फुले
महात्मा ज्योतिबा फुले (ज्योतिराव गोविंदराव फुले) को 19वी. सदी का प्रमुख समाज सेवक एवं सुधारक थे, उन्होंने भारतीय समाज में फैली अनेक कुरीतियों को दूर करने के लिए सतत संघर्ष किया। अछूतोद्धार नारी-शिक्षा, विधवा विवाह और किसानो के हित के लिए ज्योतिबा ने उल्लेखनीय कार्य किया है।
संक्षिप्त जीवन वृत्त - महात्मा ज्योतिबा जी का अवतरण 11 अप्रैल 1827 को सतारा महाराष्ट्र , में हुआ था. उनका परिवार बेहद गरीब था और जीवन-यापन के लिए बाग़-बगीचों में माली का काम करता था. ज्योतिबा जब मात्र एक वर्ष के थे तभी उनकी माता का निधन हो गया था. ज्योतिबा का लालन – पालन सगुनाबाई नामक एक दाई ने किया. सगुनाबाई ने ही उन्हें माँ की ममता और दुलार दिया. 7 वर्ष की आयु में ज्योतिबा को गांव के स्कूल में पढ़ने भेजा गया.
जातिगत भेद-भाव के कारण उन्हें विद्यालय छोड़ना पड़ा. स्कूल छोड़ने के बाद भी उनमें पढ़ने की ललक बनी रही. सगुनाबाई ने बालक ज्योतिबा को घर में ही पढ़ने में मदद की. घरेलू कार्यों के बाद जो समय बचता उसमे वह किताबें पढ़ते थे. ज्योतिबा पास-पड़ोस के बुजुर्गो से विभिन्न विषयों में चर्चा करते थे. लोग उनकी सूक्ष्म और तर्क संगत बातों से बहुत प्रभावित होते थे। उन्होंने विधवाओं और महिलाओं के कल्याण के लिए काफी काम किया। उन्होंने इसके साथ ही किसानों की हालत सुधारने और उनके कल्याण के लिए भी काफी प्रयास किये। स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए ज्योतिबा ने 1848 में एक स्कूल खोला। यह इस काम के लिए देश में पहला विद्यालय था। लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने कुछ दिन स्वयं यह काम करके अपनी पत्नी सावित्री को इस योग्य बना दिया। उच्च वर्ग के लोगों ने आरंभ से ही उनके काम में बाधा डालने की चेष्टा की, किंतु जब फुले आगे बढ़ते ही गए तो उनके पिता पर दबाब डालकर पति-पत्नी को घर से निकालवा दिया इससे कुछ समय के लिए उनका काम रुका अवश्य, पर शीघ्र ही उन्होंने एक के बाद एक बालिकाओं के तीन स्कूल खोल दिए।
उन्होंने वर्ण संस्था और जाति संस्था को शोषण की व्यवस्था बताया और जब तक इनका पूरी तरह से समापन नहीं होता तब तक एक सभ्य एवं सुसंस्कृत समाज का निर्माण असंभव है- ऐसी स्पष्ट भूमिका रखी. ऐसी भूमिका रखने वाले वो पहले भारतीय थे। उन्होंने सामाजिक परिवर्तन, ब्रम्ह्नोत्तर आंदोलन, बहुजन समाज को आत्मसम्मान देने की, किसानों के अधिकार की - ऐसी बहुत सी लड़ाईयों को प्रारंभ किया. सत्यशोधक समाज भारतीय सामाजिक क्रांति के लिये प्रयास करनेवाली अग्रणी संस्था बनी। महात्मा फुले ने लोकमान्य तिलक ,आगरकर, न्या. रानाडे, दयानंद सरस्वती के साथ देश की राजनीति और समाज को नवीन दिशा दी।
महात्मा फुले ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को पढ़ने के बाद 1848 में उन्होंने पुणे में लड़कियों के लिए भारत की पहली पाठशाला खोली | 24 सितंबर 1873 को उन्होंने सत्य शोधक समाज की स्थापना की | वह इस संस्था के पहले कार्यकारी व्यवस्थापक तथा कोषपाल भी थे |इस संस्था का मुख्य उद्देश्य समाज में वंचितों और दलितों पर पर हो रहे शोषण तथा दुर्व्यवहार पर अंकुश लगाना था | महात्मा फुले अंग्रेजी राज के बारे में एक सकारात्मक दृष्टिकोण रखते थे क्योंकि अंग्रेजी राज की वजह से भारत में न्याय और सामाजिक समानता के नए बीज बोए जा रहे थे | महात्मा फुले ने अपने जीवन में हमेशा बड़ी ही प्रबलता तथा तीव्रता से विधवा विवाह की वकालत की | उन्होंने उच्च जाति की विधवाओं के लिए सन् 1854 में एक घर भी बनवाया था | दूसरों के सामने आदर्श रखने के लिए उन्होंने अपने खुद के घर के दरवाजे सभी जाति तथा वर्गों के लोगो के लिए हमेशा खुले रखे।
ज्योतिबा मैट्रिक पास थे और उनके घर वाले चाहते थे कि वो अच्छे वेतन पर सरकारी कर्मचारी बन जाए लेकिन ज्योतिबा ने अपना सारा जीवन दलितों की सेवा में बिताने का निश्चय किया था | उन दिनों में स्त्रियों की स्थिति बहुत खराब थी क्योंकि घर के कामों तक ही उनका दायरा था | बचपन में शादी हो जाने के कारण स्त्रियों के पढ़ने लिखने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था | दुर्भाग्य से अगर कोई बचपन में ही विधवा हो जाती थी तो उसके साथ बड़ा अन्याय होता था | तब उन्होंने सोचा कि यदि भावी पीढ़ी का निर्माण करने वाली माताएँ ही अंधकार में डूबी रहेगी तो देश का क्या होगा और उन्होंने माताओं के पढ़ने पर जोर दिया था |
उन्होंने विधवाओं और महिला कल्याण के लिए काफी काम किया था | उन्होंने किसानों की हालत सुधारने और उनके कल्याण के भी काफी प्रयास किये थे | स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए ज्योतिबा और उनकी पत्नी ने मिलकर 1848 में स्कूल खोला जो देश का पहला महिला विद्यालय था | उस दौर में लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई को पढ़ाना शुरू कर दिया और उनको इतना योग्य बना दिया कि वो स्कूल में बच्चों को पढ़ा सके |
ज्योतिबा यह जानते थे कि देश व समाज की वास्तविक उन्नति तब तक नहीं हो सकती, जब तक देश का बच्चा-बच्चा जाति-पांति के बन्धनों से मुक्त नहीं हो पाता, साथ ही देश की नारियां समाज के प्रत्येक क्षेत्र में समानअधिकार नहीं पा लेतीं । उन्होंने तत्कालीन समय में भारतीय नवयुवकों का आवाहन किया कि वे देश, समाज, संस्कृति को सामाजिक बुराइयों तथा अशिक्षा से मुक्त करें और एक स्वस्थ, सुन्दर सुदृढ़ समाज का निर्माण करें । मनुष्य के लिए समाज सेवा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है । इससे अच्छी ईश्वर सेवा कोई नहीं । महाराष्ट्र में सामाजिक सुधार के पिता समझे जाने वाले महात्मा फूले ने आजीवन सामाजिक सुधार हेतु कार्य किया । वे पढ़ने-लिखने को कुलीन लोगों की बपौती नहीं मानते थे । मानव-मानव के बीच का भेद उन्हें असहनीय लगता था ।
दलितों और निर्बल वर्ग को न्याय दिलाने के लिए ज्योतिबा ने 'सत्यशोधक समाज' स्थापित किया। उनकी समाजसेवा देखकर 1888 ई. में मुंबई की एक विशाल सभा में उन्हें 'महात्मा' की उपाधि दी। ज्योतिबा ने ब्राह्मण-पुरोहित के बिना ही विवाह-संस्कार आरंभ कराया और इसे मुंबई हाईकोर्ट से भी मान्यता मिली। वे बाल-विवाह विरोधी और विधवा-विवाह के समर्थक थे। वे लोकमान्य के प्रशंसकों में थे।ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले के कोई संतान नहीं थी इसलिए उन्होंने एक विधवा के बच्चे को गोद लिया था | यह बच्चा बड़ा होकर एक चिकित्सक बना और इसने भी अपने माता पिता के समाज सेवा के कार्यों को आगे बढ़ाया | मानवता की भलाई के लिए किये गए ज्योतिबा के इन निस्वार्थ कार्यों के कारण मई 1888 में उस समय के एक और महान समाज सुधारक “राव बहादुर विट्ठलराव कृष्णाजी वान्देकर” ने उन्हें “महात्मा” की उपाधि प्रदान की | जुलाई 1988 में उन्हें लकवे लग गया | जिसकी वजह से उनका शरीर कमजोर होता गया लेकिन उनका जोश और मन कभी कमजोर नहीं हुआ।
27 नवम्बर 1890 को उन्होंने अपने सभी प्रियजनों को बुलाया और कहा कि “अब मेरे जाने का समय आ गया है, मैंने जीवन में जिन जिन कार्यों को हाथ में लिया है उसे पूरा किया है, मेरी पत्नी सावित्री ने हरदम परछाईं की तरह मेरा साथ दिया है और मेरा पुत्र यशवंत अभी छोटा है और मैं इन दोनों को आपके हवाले करता हूँ |” इतना कहते ही उनकी आँखों से आँसू आ गये और उनकी पत्नी ने उन्हें सम्भाला | 28 नवम्बर 1890 को महात्मा ज्योतिबा फुले ने देह त्याग दी और एक महान् विभूति ने इस दुनिया से अपनी अनंत यात्रा के लिए विदाई ले ली।
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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!