10 अप्रैल 2021

किताबें मरती नहीं..!




    हाल ही में पहल संपादक पूज्य ज्ञानरंजन जी ने डिक्लेअर किया कि वे अब अपनी पत्रिका नहीं छापेंगे...!
     कारण जो भी हो भक्तों को काफी दुख हुआ। कुछ भक्तों को यह तक कहने लगे कि इस तरह  पत्रिका का अवसान बेहद दुखद है !
    दुख तो मुझे भी हुआ परंतु में ज्ञान जी की परिस्थितियों को समझता हूं। बेहतरीन एडिटर हैं ।
    पिछले बार भी ऐसी ही कोई स्थिति उत्पन्न हुई थी एक पाठक के रूप में पत्रिका की गैरमौजूदगी दुख का विषय तो है। धर्मयुग साप्ताहिक हिंदुस्तान कादंबिनी आदि आदि कई सारी पत्रिकाओं का प्रकाशन किसी ना किसी कारण से या तो खत्म हो गया या बंद कर दिया गया ।
   यहां किसी किताब के नियमित प्रकाशन ना हो पाने को उस  किताब का अवसान होना पूर्णत: बाल बुद्धि का परिचय है। मित्र समझ लो किताबें कभी नहीं मरती।
   किताब जीती है किताबें जीवंत रहती है चाहे भी ताड़ पत्र पर लिखी हों या दीवारों पर अब इंटरनेट पर किताबें जिंदा हो जाती तब जब तुम उसे बांचते हो । मरते तो 24 लोग जो वर्दी पहनते हैं मरते तो जानवर हैं । किताबें जो आकाश से उतर आती हैं उनका क्या किताबें जो जंगलों में आरण्यक के रूप में लिखी जाती है किताबें जो उपनिषद होती हैं इन सब के बारे में आप क्या कहोगे..?
    निरर्थक भावुक मत बनो यह बाल बुद्धि है मुझे तो लगा कि:"मित्र तुम वैसे ही बच्चे हो जो चॉकलेट खाना चाह रहा था रोज की तरह और आज से तय हो गया कि तुम्हें चॉकलेट नहीं मिलेगी ।"
   एक  पत्रिका का नहीं आना कोई घटना नहीं कि आप शोक गीत लिखें।
इसे मोह कहा गया है । इतना पढ़ने के बाद भी मोह से तुम्हें छुटकारा नहीं है। कोई बात नहीं जब परिपक्वता आएगी तब सब समझ जाओगे ।
   व्हेन सांग फाह्यान बहुत कुछ लिख गए हैं। चाणक्य ने क्या कम लिखा है और फिर वह गीता जो गांधी जी हाथ में लेकर घूमते थे वह किताब नहीं है।
   दुनिया भर में जानकारियों की बौछार को समझिए। ये बौछारें तुम्हें समझ में नहीं आ सकती है कभी। हैमलेट और अभिज्ञान शाकुंतलम को बराबरी से रख कर पढ़ा है कभी ?
    उड़ना है तो पंख लगाओ और
उड़ो ऊंचे और ऊंचे आसमान अंतहीन है । आसमान में चक्रव्यूह नहीं है वैसे तुम अभिमन्यु नहीं हो अभी तो पहला ही द्वार पार नहीं कर पाए।
  निर्मोही बनो इतनी आसक्ति  भी बात की..!
   तिरलोक सिंह आंखों में ढेर सारा प्यार लेकर आते थे । तब तक आए जब तक आंखों ने साथ देना नहीं छोड़ा था। अरुण जी फिर मैं फिर मलय जी हम सबके बीच सकारात्मक संदेशों का ताना-बाना बुना करते थे । असंगघोष की किताब के बाद ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की किताब आंखों को भिगो देती थी । तिरलोक सिंह ने पढ़ना सिखाया है कसम उस अवतार पुरुष की तुम ही मत रो जितना है उतना संभाल लो पढ़ लो समझ लो अक्षर बुनना तो सबको आता है। बुने हुए अक्षर शब्द बनते हैं । और इन्हीं की व्यवस्था किताबें हैं।
  किताबें तब मरती हैं जब तुम्हारी अलमारी के ताबूत में बंद रहा करतीं है । जैसे ही आंख के सामने आती जिंदा हो जाती है कसम से ।
   विमर्श करना हमारा दायित्व है और विरासत भी। नाराज मत हो बस समझा रहा हूं। पहल कभी नहीं मरती  जिंदा रहती है अनंत काल तक।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!