भारत के हृदय स्थल में स्थित त्रिपुरी (जबलपुर) के महान कलचुरी वंश का तेरहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में अवसान हो गया था। फलस्वरूप सीमावर्ती शक्तियाँ इस क्षेत्र को अपने अधीन करने के लिए लालायित हो रही थी। अंतत: इस संक्रांति काल में एक वीर योद्धा जादों राय (यदु राय) ने गढ़ा- कटंगा क्षेत्र जबलपुर में गोंड वंश की नींव रखी। कालांतर में यह साम्राज्य गोंडवाना साम्राज्य के नाम से जाना गया।
गोंडवाना साम्राज्य का स्वर्ण युग रानी दुर्गावती का समय था। एक समय अंतराल के बाद उत्तर भारत में राजनीतिक परिवर्तन हुए। मुगलों ने अकबर के नेतृत्व में मुगल साम्राज्य की उत्तर भारत में पुनर्स्थापना की। गोंडवाना साम्राज्य का वैभव और संपन्नता को देखकर अकबर ने गोंडवाना साम्राज्य को मुगल साम्राज्य में मिलाने के लिए सेनापति आसफ खान को भेजा। सेनापति आसफ खान के साथ रानी दुर्गावती के 6 युद्ध हुए जिनमें 5 युद्धों में रानी दुर्गावती विजयी रही। छठें युद्ध में आसफ खान के पास तोपखाना आ जाने और रानी दुर्गावती के एक सामंत बदन सिंह के विश्वासघात के कारण युद्ध के परिणाम विपरीत होने लगे तब रानी दुर्गावती ने 24 जून 1564 को अपने महावत के हाथों से कटार लेकर अपना प्राणोत्सर्ग किया। इसके बाद दलपति शाह के छोटे भाई राजा चंद्र शाह गोंडवाना साम्राज्य के राजा बने और यह साम्राज्य मुगलों के अधीन आ गया। राजा चंद्र शाह की 11 वीं पीढ़ी में राजा शंकर शाह का जन्म मंडला के किले में हुआ। इनके पिता का नाम सुमेर शाह और दादा का नाम निजाम शाह था।
18वीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों में भारत की राजनीतिक परिस्थितियों में आमूलचूल परिवर्तन आया और मराठों ने पेशवा के नेतृत्व में मुगलों से गोंडवाना साम्राज्य हस्तगत कर लिया। इसके साथ ही सुमेर शाह को मराठों के प्रतिनिधि के रूप में मंडला में राज्य संभालने थे। सन् 1804 में सुमेर शाह की मृत्यु हो गई।
सन् 1818 में गोंडवाना साम्राज्य मराठाओं के हाथ से निकल गया, अंग्रेजों ने मंडला को अपने अधीन कर लिया और मध्य प्रांत में मिला लिया। इसके बाद राजा शंकर शाह और कुंवर रघुनाथ शाह को जबलपुर में गढ़ा पुरवा के पास के 3 गाँव की जागीर देकर पेंशन दे दी गई। राजा शंकर शाह अंग्रेजों के इस दुर्व्यवहार के विरुद्ध थे और अंग्रेजों से स्वतंत्रता चाहते थे। आगे चलकर महारथी शंकर शाह और कुंवर रघुनाथ शाह ने सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में तोप के मुंह से उड़कर (Blowing from a gun) संपूर्ण भारत में किसी भी रजवाड़े परिवार की ओर से प्रथम बलिदान दिया। 19वीं शताब्दी मध्यान्ह तक अंग्रेजों के अत्याचार और अनाचार चरम सीमा पार कर गए थे। डलहौजी की हड़प नीति के बाद भारत में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी जिसकी जानकारी राजा शंकर शाह और कुंवर रघुनाथ शाह को भी लग गई थी। जबलपुर स्थित गढ़ा पुरवा में मंडला, सिवनी, नरसिंहपुर, सागर, दमोह सहित मध्य प्रांत के के लगभग सभी रजवाड़े परिवार, जमींदार, मालगुजार के साथ 52 गढ़ों से सेनानी भी मिलने आने लगे थे।
जबलपुर कैंटोनमेंट क्षेत्र से 52वीं नेटिव इन्फेंट्री के सूबेदार बलदेव तिवारी के साथ कई सैनिक राजा शंकरशाह और कुंवर रघुनाथ शाह से मिलने आते थे। राजा शंकर शाह एवं कुंवर रघुनाथ शाह ने अंग्रेजों के विरुद्ध शक्तिशाली संगठन तैयार कर लिया था। राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह ने मध्य प्रांत के रजवाड़े परिवार जमींदारों और मालगुजारों को एकत्रित करने के लिए रोटी और कमल की जगह दो काली चूड़ियों की पुड़िया जिसमें संदेश लिखा होता था कि "अंग्रेजों से संघर्ष के लिए तैयार रहो या चूड़ियाँ पहन कर घर बैठो"। जो रजवाड़े परिवार, जमींदार और मालगुजार इस पुड़िया को स्वीकार कर लेते थे तो इसका आशय होता था कि वे अंग्रेजों के विरुद्ध संग्राम में शामिल हैं और जो स्वीकार नहीं करते थे तो यह मान लिया जाता था कि वे साथ नहीं है। इस तरह से मध्य प्रांत में राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध एक मोर्चा तैयार हो गया था। उनका झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे तथा कुंवर साहब से भी संपर्क था।
महारथी मंगल पांडे ने 29 मार्च सन् 1857 में बैरकपुर छावनी में 34 वीं नेटिव इन्फेंट्री की ओर से प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का शंखनाद कर दिया। कानपुर, लखनऊ और दिल्ली से होने वाली भयंकर घटनाओं के समाचार भी राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह तक पहुँचे। उत्तेजित हुए राजा शंकर शाह ने भी 10 सितंबर 1857 को जबलपुर में गढ़ा पुरवा में बैठक बुलाई और मध्य प्रांत में स्वतंत्रता संग्राम का श्रीगणेश करने की योजना भी बना ली, जिसमें मध्य प्रांत के अधिकांश रजवाड़े, जमींदार एवं मालगुजार एकत्रित हुए थे। ब्रिटिश सैन्य छावनी जबलपुर पर आक्रमण की योजना मोहर्रम के अवसर पर थी परंतु कुछ जमींदारों और मालगुजारों के अनुपस्थित होने और उचित समन्वय न होने के कारण योजना स्थगित कर दी गई। विजयादशमी को आक्रमण करने की योजना बनायी गई। जबलपुर कैंटोनमेंट छावनी से सैनिकों का राजा शंकर शाह और रघुनाथशाह के यहाँ आना-जाना था, इस बात की जानकारी जबलपुर के डिप्टी कमिश्नर क्लार्क को लग गई थी। इसलिए उसने गुप्तचरों को साधुओं के वेश में रहस्य जानने के लिए भेजा। राजा शंकर शाह को लगा कि यह हमारे ही सहयोगी हैं, इसलिए उन्होंने सारी योजना सविस्तार गुप्तचरों को बता दी। गुप्तचरों ने सारा वृतांत 14 सितंबर 1857 को डिप्टी कमिश्नर क्लार्क को सुनाया फलस्वरूप जबलपुर कमिश्नर इरेस्किन से अनुमति लेकर लेफ्टिनेंट क्लार्क ने 20 घुड़सवार सैनिक तथा 60 पैदल सैनिकों के साथ गढ़ा पुरवा में धावा बोला तथा राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह को गिरफ्तार कर लिया गया। इसके साथ ही दोनों की स्वरचित कविताएँ और लाल रंग का रेशमी थैला, जिसमें दस्तावेज और पत्र भरे थे, बरामद कर लिये गये। गिरफ्तारी करने के उपरांत उनको मिलिट्री केंटोनमेंट में रखा गया परंतु उसी रात को उन्हें छुड़ाने के लिए सूबेदार बलदेव तिवारी ने अपनी 52वीं नेटिव इन्फेन्ट्री के साथ बलवा किया, इसलिए राजा शंकर शाह-रघुनाथ शाह को कैंटोनमेंट से हटाकर रेसीडेंसी (रेजीडेंसी) में रखा गया। यहाँ डिप्टी कमिश्नर और दो अंग्रेज अधिकारी का न्याय आयोग बनाया गया। तीन दिन तक राजद्रोह का आपराधिक मामला चलाया गया और उनकी स्वरचित कविताएँ, जिसमें उन्होंने अंग्रेजी साम्राज्य के सर्वनाश की कामना माँ कालिका से की थी। उस पर गंभीर आपत्ति उठाई गई। साथ ही लाल रंग की रेशमी थैली में जो देसी रजवाड़ों, जमींदारों और मालगुजारों से पत्र व्यवहार किए थे उनको पढ़ा गया, जिसमें मध्य प्रांत में अंग्रेजों की सत्ता उखाड़ फेंकने की अपील की गई थी। राजा शंकर शाह और कुँवर रघुनाथ शाह ने सारे आरोप स्वीकार कर लिए, तब न्याय आयोग ने संधि प्रस्ताव प्रस्तुत किया। संधि की शर्तें थीं -राजा शंकर शाह और कुंवर रघुनाथ शाह ईसाई धर्म स्वीकार स्वीकार करें, उन्हें अच्छी पेंशन दी जाएगी और वह विद्रोहियों का पता बता दें। इन शर्तों के मानने के बाद दोनों पिता-पुत्र को माफ कर दिया जाएगा। राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह ने यह स्वीकार नहीं किया। तब न्याय आयोग ने उन्हें फाँसी की सजा सुनाने का निर्णय लिया। राजा शंकर शाह-रघुनाथ शाह ने कहा कि - हम ठग, पिंडारी, चोर, लुटेरे, डाकू हत्यारे नहीं है, जो हमें फाँसी दी जाए, हम गोंडवाना के राजा हैं, इसलिए हमें तोप के मुँह से बांधकर उड़ाया जाए। न्याय आयोग ने भी विचार किया कि तोप के मुँह में बांध के उड़ाने से जनता में दहशत फैलेगी। इसलिए अच्छा है कि तोप के मुँह से बांधकर ही उड़ाया जाए। उधर राजा शंकर शाह बुद्धिजीवी थे और वह चाहते थे कि जब सार्वजनिक रूप से उन्हें तोप के गोले से उड़ाया जाएगा तो जन आक्रोश फैलेगा और मध्य प्रांत में भयानक संग्राम होगा।
अंततः 18 सितंबर 1857 को प्रातः 11 बजे 33वीं मद्रास नेटिव इन्फेंट्री सहित पाँच हजार सैनिकों के घेरे में रेसीडेंसी के सामने राजा शंकर शाह-रघुनाथ शाह को तोप के मुँह पर बांधा गया। चारों और अपार जनसमूह उमड़ आया था। पिता और पुत्र शांत चित्त होकर खड़े थे। उनके चेहरों में किसी भी प्रकार के भय के लक्षण नहीं थे। लेफ्टिनेंट क्लार्क के तोप के गोले से उड़ाने के आदेश के पूर्व राजा शंकर शाह ने उस स्वरचित कविता का प्रथम छंद गाया, जिसमें अंग्रेजों के सर्वनाश की प्रार्थना की गई थी और जिसे अंग्रेजों ने अपराध का एक आधार बनाया था। कविता का अंग्रेजी अनुवाद जबलपुर के कमिश्नर इरेस्किन ने किया था। कविता का प्रथम छंद राजा शंकरशाह ने इस प्रकार गाया "मूंद मुख डंडिन को चुगलों को चबाई खाई, खूंद डार दुष्टन को शत्रु संघारिका,
मार अंगरेज रेज पर देई मात चंडी,
बचे नहीं बेरी बाल बच्चे संहारिका,
संकर की रक्षा कर दास प्रतिपाल कर,
दीन की पुकार सुन जाय मात हालिका,
खाय ले म्लेच्छन को झेल नहीं करो मात,
भच्छन कर तत्छन ही बैरिन को घौर मात कालिका। "
दूसरा छंद पुत्र रघुनाथशाह ने और भी उच्च स्वर में सुनाया" कालिका भवानी माय अरज हमारी सुन,
डार मुण्डमाल गरे खड्ग कर धर ले,
सत्य के प्रकाशन औ असुर बिनाशन कौ, भारत समर माँहि चण्डिके संवर ले,
झुंड-झुंड बैरिन के रुण्ड मुण्ड झारि-झारि,
सोनित की धारन ते खप्पर तू भर ले,
कहै रघुनाथशाह माँ फिरंगिन को काटि-काटि, किलकि-किलकि माँ कलेऊ खूब कर ले"।... इसके बाद लेफ्टिनेंट क्लार्क ने तोप चलाने का आदेश दिया था और भयंकर गर्जना के साथ चारों तरफ धुआँ भर गया, राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह के हाथ-पाँव तोप से बंधे रह गए। शेष शरीर के मांस के लोथड़े और हड्डियाँ 50-50 गज दूर जाकर गिरीं, जिन्हें उनकी वीरांगना पत्नियों क्रमशः फूलकुंवर और मन कुंवर ने एकत्रित किया तथा कुंवर रघुनाथ शाह के पुत्र लक्ष्मण शाह ने अंतिम संस्कार किया।
इस तरह से प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में भारत के रजवाड़ों में प्रथम बलिदानी, जिन्हें तोप के मुँह से बांधकर उड़ाया गया,वो राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह ही थे। चार्ल्स बाल ने द हिस्ट्री ऑफ इंडियन म्यूटिनी में लिखा है कि "राजा शंकर शाह-रघुनाथ शाह को जब तोप के मुँह से बांधा गया था तब भी उनकी आँखों में दया या याचना का भाव तक नहीं था"। एक चश्मदीद अंग्रेज अफसर के हवाले से द हिस्ट्री ऑफ इंडियन म्यूटिनी में कहा गया है कि" उनके पैर-हाथ जो बांध दिए गए थे, तोप के मुँह के पास पड़े थे और सिर तथा शरीर का ऊपरी भाग सामने की ओर लगभग पचास गज की दूरी पर जा गिरे थे। उनके चेहरों को जरा भी क्षति नहीं पहुँची थी और वे बिल्कुल शांत थे।" बात यहीं खत्म नहीं हुई क्योंकि राजा शंकर शाह की सहधर्मचारिणी रानी फूलकुंवर ने मंडला में अंग्रेजों से लड़ते हुए स्वयं अपना आत्मोत्सर्ग किया।
राजा शंकर शाह और कुँवर रघुनाथ शाह के विचार फलीभूत हुए कि "हमारे इस बलिदान के बाद सारे मध्य प्रांत में अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम छिड़ जाएगा" और वैसा ही हुआ। संपूर्ण मध्य प्रांत के अधिकांश रजवाड़े परिवार एवं जमींदार और मालगुजारों ने अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजा दिया।
राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह के बलिदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता है। आज भी उनकी बलिदान गाथा पर गीत और लोक गीत गाए जाते हैं। सन् 1946 में जब जबलपुर में सिग्नल कोर के 1700 सिपाहियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया तथा वो तिलक भूमि तलैया पहुँचे तब उन्होंने राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह को ही अपना नायक घोषित किया था। राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह की अमर बलिदान गाथा भारतीय इतिहास का वह पड़ाव है, जो चिरकाल तक भारतीयों को गर्व, गौरव और स्वाभिमान की अनुभूति कराता रहेगा। साथ ही वर्तमान और भावी पीढ़ी को स्वतंत्रता के लिए चुकाई गई कीमत का एहसास कराएगा, जिससे राष्ट्रवाद और देश भक्ति की भावना प्रबल होती रहेगी तथा यही भाव जागृत होंगे कि मैं रहूँ या ना रहूँ, मेरा यह भारत देश रहना चाहिए।...........
स्रोत :- मध्यप्रदेश सरकार सूचना प्रकाशन एवं जनसम्पर्क भोपाल की आधिकारिक वेबसाइट
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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!