पारिस्थितिकी
चक्षु पे तमस उनके,भयातुर आराधना है।
चिर प्रतीक्षित युद्ध की, सन्निकट संभावना है !!
वेदना- स्वर भी, हर दिशा से आ
रहें हैं
जागरण के द्वार पर सनातन संचेतना है ।।
छत से प्रस्तर झर रहे,आग से झुलसे नगर-
ये हलाहल युक्त पल ही, युद्ध की प्रस्तावना है ।।
मत मेरा ही श्रेष्ठतम है, मुझे मानों मुझे मानो
ब्रह्म की सुन मीत मेरे .. ये ही अवमानना है ।।
नेति-नेति कहके हम ही, सत्य को विस्तार देते
वहाँ उनकी एक बिंदु पर रुकी, अवधारणा है ।।
हम तो हैं अरिहंत ठहरे,कितनी भी कोशिश करो –
ब्रह्म के अवतरण की अब सुनिश्चित संभावना है ।।
गिरीश बिल्लोरे”मुकुल”
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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!