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9 अप्रैल 2011

"कुमार विश्वास का सच..!! : मंचीय अपराध (दूसरी किश्त )

मार विश्वास ने  जबलपुर में जो हरक़त की वो ओछी थी इसमें कोई दो मत नहीं. पहली पोस्ट के के बाद जिस तरह सुधि जन सामने आए वो एक अलग अनुभव है. 
ब्लागजगत ने क्या कहा देखिये आप  स्वयं
पद्मसिंह:-एक पगली लड़की को लेकर युवा मन को दीवाना बनाने की बाजीगरी में सिद्ध हस्त हैं कुमार विश्वास जी....गन्दा है पर धंदा है ये
अनूप शुक्ल : कुमार विश्वास के बारे में सम्यक विश्लेषण के लिये यह पोस्ट देखिये:

http://amrendrablog.blogspot.com/2010/08/blog-post.html

डाक्टर अजित गुप्ता:-मैंने उनके कारनामें अमेरिका में देखे हैं। आज का समाज किस ओर जा रहा है यह उनकी लोकप्रियता से ज्ञात होता है।
डा० शरद सिंह :- कुमार विश्वास जी को हार्दिक बधाई।
नुक्‍कड़ :-कुमार भी विश्‍वास भी ?
Er. सत्यम शिवम आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (09.04.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
अमित के. सागर याद है कि आपने आयोजन के पारिश्रमिक को लेकर क्या कहा था उसका खुलासा कर ही दूंगा आयकर विभाग को भी तो पता चले प्रोफ़ेसर साहब ?"

उक्त सन्दर्भ में जानने को अतिउत्सुक हूँ. शेष जो कमेंट्स पढने को मिली हैं...फिर तो और भी...और भी कुछ इन के बारे में!
*-*
कवियों को भी ऐसा हो सच गर,
तो आना चाहिए बाहर हर कीमत पर
कहते हैं कि कवि तो दिल से रोटी बना खाता है
फिर कविता से भला कारोबार कैसे कर पाता है?
*-*

बवाल एक अजीबोग़रीब मंज़र कल रात देखने को मिलता है :-

एक यूथ आईकॉन नामक व्यक्ति बड़ी तन्मयता से ओल्डों की धज्जियाँ उड़ाता जा रहा है;
परम आदरणीय अन्ना हजारे जी को जबरन अपने झंडे तले ला रहा है;
अपने आपको इलाहाबादी अदब की प्रचारगाह बतला रहा है और बच्चन साहब को जड़ से भुलवा रहा है;
अपने एकदम सामने बैठे हुए स्थानीय बुज़ुर्ग नेताओं, मध्य प्रदेश के विधानसभा अध्यक्ष आदि पर तबियत से अपने हलाहली शब्दवाण चला रहा है;
विनोबा बाबा की प्रिय संस्कारधानी के मँच पर खड़ा या कह सकते हैं सिरचढ़ा होकर, कहता जा रहा है कि मैं उपहास नहीं, परिहास करता हूँ और उपहास ही करता जा रहा है;
जमूरों का स्व्यंभू उस्ताद बनकर अपने हर वाक्य पर ज़बरदस्ती तालियाँ पिटवा रहा है;
(इतनी तालियाँ अपनी ही एक-दूसरी हथेलियों पर पीटने से बेहतर था कि तालियाँ पिटवाने वाले के सर पर बजा दी जातीं, जिससे उसे लगातर ये सुनाई देतीं जातीं और उसे बार आग्रह करने की ज़हमत न उठाना पड़ती, समय भी बचता और ............. ख़ैर)
उसे जाकर कोई कह दे भाई के,
मैं मैं मैं मैं मैं मैं मैं, 
सिर्फ़ बकरी के प्यारे बच्चे के मुँह से ही कर्णप्रिय लगती है, आदमी के (दंभी) मुँह से नहीं।
शेष टिप्पणी अगले अगले आलेख की अगली किस्त में......
---जय हिंद

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण) said...बढ़िया प्रस्तुति!कुमार विश्वास जी को हार्दिक बधाई।
भारतीय नागरिक ओह!
विजय तिवारी " किसलय " संस्कारों का सन्देश देने वाली संस्कारधानी जबलपुर में विगत ७ मार्च को एक कमउम्र और ओछी अक्ल के बड़बोले लड़के ने असाहित्यिक उत्पात से जबलपुर के प्रबुद्ध वर्ग और नारी शक्ति को पीड़ित कर स्वयं को शर्मसार करते हुए माँ सरस्वती की प्रदत्त प्रतिभा का भी दुरूपयोग किया है. टीनएज़र्स की तालियाँ बटोरने के चक्कर में वरिष्ठ नेताओं, साहित्यकारों, शिक्षकों एवं कलाप्रेमियों की खिल्लियाँ उड़ाना कविकर्म कदापि कहीं हो सकता... निश्चित रूप से ये किसी के माँ- बाप तो नहीं सिखाते फिर किसके दिए संस्कारों का विकृत स्वरूप कहा जाएगा. 

कई रसूखदारों को एक पल और बैठना गवारा नहीं हुआ और वे उठकर बिना कुछ कहे सिर्फ इस लिए चले गए कि मेहमान की गलतियों को भी एक बार माफ़ करना संस्कारधानी के संस्कार हैं. महिलायें द्विअर्थी बातों से सिर छुपाती रहीं. आयोजकों को इसका अंदाजा हो या न हो लेकिन श्रोताओं का एक बहुत बड़ा वर्ग भविष्य में करारा जवाब जरूर देगा. स्वयं जिनसे शिक्षित हुए उन ही शिक्षकों को मनहूसियत का सिला देना हर आम आदमी बदतमीजी के अलावा कुछ और नहीं कहेगा . इस से तो अच्छा ये होता कि आमंत्रण पत्र पर केप्सन होता कि केवल बेवकूफों और तालियाँ बजाने वाले "विशेष वर्ग" हेतु. 

विश्वास को खोकर भला कोई सफल हुआ है? अपने ही श्रोताओं का मजाक उड़ाने वाले को कोई कब तक झेलेगा, काश कभी वो स्थिति न आये कि कोई मंच पर ही आकर नीतिगत फैसला कर दे. 
__________________
अपने कार्यक्रम के दौरान कुमार विश्वास ने जो मंचीय अपराध किये वे ये रहे  
  1. मध्य-प्रदेश के माननीय विधान-सभा अध्यक्ष मान० ईश्वर दास जी रोहाणी के आगमन पर अपमान जनक टिप्पणी 
  2. श्री अलबेला खत्री जी का नाम आयोजकों पर दवाब डाल के कार्ड से हटवाया. और जब वे उड़ीसा के लम्बे सफ़र के बाद जबलपुर में कार्यक्रम स्थल पर पहुंचे तो उनको "अभद्रता पूर्वक "अलबेला अलबेला का संबोधन करना.
  3. टीनएज़र्स की तालियाँ बटोरने के चक्कर में वरिष्ठ नेताओं, साहित्यकारों, शिक्षकों एवं कलाप्रेमियों की खिल्लियाँ उड़ाना कविकर्म कदापि कहीं हो सकता... निश्चित रूप से ये किसी के माँ- बाप तो नहीं सिखाते फिर किसके दिए संस्कारों का विकृत स्वरूप कहा जाएगा. 
  4. भारतीय प्रेम को पाश्चात्य सेक्स से तुलना करने वाला रटा हुया जुमला
  5. इटारसी म०प्र० के कवि राजेंद्र मालवीय की कविता को अपने साथ हुई घटना के रूप में व्यक्त करना
  6. वयोवृद्ध  श्रीयुत रोहाणी जी के समक्ष स्वल्पहार रखते समय अभद्रता पूर्वक कटाक्ष करना. 
  7. उनके प्रस्थान के समय अभद्रता पूर्वक इशारे  करना.
  8. कुछ दिनों पूर्व मुझसे एक अन्य कार्यक्रम के आयोजन के बारे मेरे द्वारा फ़ोन पर  संपर्क करने पर कहा जाना "बिल्लोरे जी,एक लाख लूंगा, किराया भाड़ा अलग से वो भी टेक्स मुक्त तरीके से  " (आयकर विभाग ध्यान दे तो कृपा होगी.)अब आप ही निर्णय कीजिये आज़ देश भर के लिये जूझने वाले संत अन्ना-हजारे के साथ "जंतर-मंतर पर खड़े होने वाले बच्चों को रिझाने बहकाने वाले नकारात्मक उर्जा का संचार कर देने वाले भाई कुमार विश्वाश दोहरा चरित्र देश को किधर ले जा रहा है. " 
सच को सुन कर युवा साथी भौंचक अवश्य होंगे. किंतु यही है कुमार साहब का सच. वैसे तो कई सच हैं जो लोग "कौन किस्सा बढ़ाए ! " वाली मानसिकता की वज़ह से 
वैसे हम साहित्य प्रेमियों की नज़र में यह व्यक्तित्व अतिशय कुंठित एवम "अपनी स्थापना के लिये कुछ भी करने वाला साबित हुआ है." जिसे यह शऊर भी नहीं कि "संवैधानिक पदधारियों से कैसा बर्ताव किया जाता है....? "
मेरी नज़र में "कुमार विश्वास" गांव में आये उस मदारी से बढ़कर नहीं जिसका हम भी बचपन में इंतज़ार करते थे . 
अंत में छोटे बच्चे की तरह समझाईश कुछ यूं :-

अगर तू गीत गाता है तो बस तू गीत गाता चल
टोटकों से निकल बाहर खुद को आज़माता चल
तेरी ताक़त तेरी शोहरत नही,तेरी वफ़ादारी-
सभी से मत बना रिश्ते बना तो फ़िर निभाता चल.





7 जुल॰ 2008

स्व.भूपेन्द्र कौशिक " फ़िक्र"

फ़िक्र साहब से स्वतंत्र मत के लिए साक्षात्कार लिया था शायद 1999-2000 में उसे सम्हाल के रखा गया
उनके पौत्र ने

स्वर्गीय भूपेन्द्र कौशिक ''फ़िक्र'' साहब



भूपेंद्र कौशिक '' फ़िक्र' जी जबलपुर तीखे व्यंग्य कार थे । उनके जीवन में भी उतनी बेबाकी ताउम्र उनके साथ रही मैंने कभी उनका साक्षात्कार लिया था स्वतंत्र मत अखबार के लिए उस अखबार की यह कटिंग उनके पौत्र यानि कि निशांत कौशिक ने उपलब्ध कराई निशांत दादा जी के बड़े ही चहेते रहें हैं उनके ब्लाग'स ये रहे


फ़िक्र साहब की एक कविता
शहर में बहुत से विद्वान हैं
मुंह में बहुत से दांत हैं
शहर में विद्वान न हों
मुंह में दांत न हों
तो अजगर का आकार बनता है
अजगर अंधकार का प्रतीक है
अन्धकार जो सूरज को भी निगलता है
अंधकार जिस के पेट में रौशनी कि हड्डियाँ टूटती हैं
इन हड्डियों के टूटने कि आवाज सारा शहर सुनता है
और जो भी अपने आप को ज़रा भी विद्वान समझता है
वह अपने ही पेट में इस आवाज को महसूस करता है
पेट का भय ही सबसे बड़ा भय है
इस भय के कारण ही
सबके अपने अपने अहाते बन गए हैं
जो भी अपने अहाते में है
विद्वान है
यह काम बहुत आसान है
हर चौराहे पर नकली दांतों कि दुकान है
आज सारा शहर विद्वान है

24 जून 2008

प्रिय कवि/शायर और उनके कलाम

[01]ग़ालिब हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा कोई बताओ कि वो शोखे-तुंदख़ू क्या है ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न हमसे वरना ख़ौफ़-ए-बदामोज़ी-ए-अदू क्या है चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन हमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़ सिवाए बादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो चार ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी तो किस उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है बना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता वगर्ना शहर में "ग़ालिब" की आबरू क्या है ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता तेरे वादे पर जिये हम तो ये जान झूठ जाना के ख़ुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता तेरी नाज़ुकी से जाना कि बँधा था अह्दबोदा कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तवार होता कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता ये कहाँ की दोस्ती है के बने हैं दोस्त नासेह कोई चारासाज़ होता, कोई ग़मगुसार होता रग-ए-सन्ग से टपकता वो लहू कि फिर न थमता जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता ग़म अगर्चे जाँगुसिल है, पे कहाँ बचे के दिल है ग़म-ए-इश्क़ गर न होता, ग़म-ए-रोज़गार होता कहूँ किस से मैं के क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्योँ न ग़र्क़-ए-दरिया न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता उसे कौन देख सकता कि यगना है वो यक्ता जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो चार होता ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान "ग़ालिब" तुझे हम वली समझते, जो न बादाख़्वार होता [02]न दैन्यं न पलायनम् / अटल बिहारी वाजपेयी कर्तव्य के पुनीत पथ को हमने स्वेद से सींचा है,कभी-कभी अपने अश्रु और—प्राणों का अर्ध्य भी दिया है। किन्तु, अपनी ध्येय-यात्रा में—हम कभी रुके नहीं हैं।किसी चुनौती के सम्मुख कभी झुके नहीं हैं। आज,जब कि राष्ट्र-जीवन की समस्त निधियाँ,दाँव पर लगी हैं, और, एक घनीभूत अँधेरा—हमारे जीवन केसारे आलोक कोनिगल लेना चाहता है; हमें ध्येय के लिएजीने, जूझने औरआवश्यकता पड़ने पर—मरने के संकल्प को दोहराना है। आग्नेय परीक्षा की इस घड़ी में—आइए, अर्जुन की तरहउद्घोष करें :‘‘न दैन्यं न पलायनम्।’’ " [03] अशोक वाजपेयी हम अपने पूर्वजों की अस्थियों में रहते हैं- हम उठाते हैं एक शब्द और किसी पिछली शताब्दी का वाक्य-विन्यास विचलित होता है, हम खोलते हैं द्वार और आवाज़ गूँजती है एक प्राचीन घर में कहीं- हम वनस्पतियों की अभेद्य छाँह में रहते हैं कीड़ों की तरह हम अपने बच्चों को छोड़ जाते हैं पूर्वजों के पास काम पर जाने के पहले हम उठाते हैं टोकनियों पर बोझ और समय हम रुखी-सुखी खा और ठंडा पानी पीकर चल पड़ते हैं, अनंत की राह पर और धीरे-धीरे दृश्य में ओझल हो जाते हैं कि कोई देखे तो कह नहीं पायेगा कि अभी कुछ देर पहले हम थे हम अपने पूर्वजों की अस्थियों में रहते हैं- " [04] कैफ़ी आज़मी ~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~* सुना करो मेरी जाँ इन से उन से अफ़साने सब अजनबी हैं यहाँ कौन किस को पहचाने यहाँ से जल्द गुज़र जाओ क़ाफ़िले वालों हैं मेरी प्यास के फूँके हुए ये वीराने मेरी जुनून-ए-परस्तिश से तंग आ गये लोग सुना है बंद किये जा रहे हैं बुत-ख़ाने जहाँ से पिछले पहर कोई तश्ना-काम उठा वहीं पे तोड़े हैं यारों ने आज पैमाने बहार आये तो मेरा सलाम कह देना मुझे तो आज तलब कर लिया है सेहरा ने सिवा है हुक़्म कि "कैफ़ी" को संगसार करो मसीहा बैठे हैं छुप के कहाँ ख़ुदा जाने [05] रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' ~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~* क्या तुम भी सुधि से थके प्राण ले-लेकर अकुलाती होगी! जब नींद नहीं आती होगी! दिनभर के कार्य-भार से थक जाता होगा जूही-सा तनश्रम से कुम्हला जाता होगा मृदु कोकाबेली-सा आनन लेकर तन-मन की श्रांति पड़ी होगी जब शय्या पर चंचलकिस मर्म-वेदना से क्रंदन करता होगा प्रति रोम विकल आँखों के अम्बर से धीरे-से ओस ढुलक जाती होगी! जब नींद नहीं आती होगी! जैसे घर में दीपक न जले ले वैसा अंधकार तन में अमराई में बोले न पिकी ले वैसा सूनापन मन में साथी की डूब रही नौका जो खड़ा देखता हो तट पर - उसकी-सी लिये विवशता तुम रह-रह जलती होगी कातर तुम जाग रही होगी पर जैसे दुनियाँ सो जाती होगी! जब नींद नहीं आती होगी! हो छलक उठी निर्जन में काली रात अवश ज्यों अनजाने छाया होगा वैसा ही भयकारी उजड़ापन सिरहाने जीवन का सपना टूट गया - छूटा अरमानों का सहचर अब शेष नहीं होगी प्राणों की क्षुब्ध रुलाई जीवन भर क्यों सोच यही तुम चिंताकुल अपने से भय खाती होगी? जब नींद नहीं आती होगी!

कितना असरदार

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