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24 जून 2008

प्रिय कवि/शायर और उनके कलाम

[01]ग़ालिब हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा कोई बताओ कि वो शोखे-तुंदख़ू क्या है ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न हमसे वरना ख़ौफ़-ए-बदामोज़ी-ए-अदू क्या है चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन हमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़ सिवाए बादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो चार ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी तो किस उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है बना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता वगर्ना शहर में "ग़ालिब" की आबरू क्या है ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता तेरे वादे पर जिये हम तो ये जान झूठ जाना के ख़ुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता तेरी नाज़ुकी से जाना कि बँधा था अह्दबोदा कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तवार होता कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता ये कहाँ की दोस्ती है के बने हैं दोस्त नासेह कोई चारासाज़ होता, कोई ग़मगुसार होता रग-ए-सन्ग से टपकता वो लहू कि फिर न थमता जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता ग़म अगर्चे जाँगुसिल है, पे कहाँ बचे के दिल है ग़म-ए-इश्क़ गर न होता, ग़म-ए-रोज़गार होता कहूँ किस से मैं के क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्योँ न ग़र्क़-ए-दरिया न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता उसे कौन देख सकता कि यगना है वो यक्ता जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो चार होता ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान "ग़ालिब" तुझे हम वली समझते, जो न बादाख़्वार होता [02]न दैन्यं न पलायनम् / अटल बिहारी वाजपेयी कर्तव्य के पुनीत पथ को हमने स्वेद से सींचा है,कभी-कभी अपने अश्रु और—प्राणों का अर्ध्य भी दिया है। किन्तु, अपनी ध्येय-यात्रा में—हम कभी रुके नहीं हैं।किसी चुनौती के सम्मुख कभी झुके नहीं हैं। आज,जब कि राष्ट्र-जीवन की समस्त निधियाँ,दाँव पर लगी हैं, और, एक घनीभूत अँधेरा—हमारे जीवन केसारे आलोक कोनिगल लेना चाहता है; हमें ध्येय के लिएजीने, जूझने औरआवश्यकता पड़ने पर—मरने के संकल्प को दोहराना है। आग्नेय परीक्षा की इस घड़ी में—आइए, अर्जुन की तरहउद्घोष करें :‘‘न दैन्यं न पलायनम्।’’ " [03] अशोक वाजपेयी हम अपने पूर्वजों की अस्थियों में रहते हैं- हम उठाते हैं एक शब्द और किसी पिछली शताब्दी का वाक्य-विन्यास विचलित होता है, हम खोलते हैं द्वार और आवाज़ गूँजती है एक प्राचीन घर में कहीं- हम वनस्पतियों की अभेद्य छाँह में रहते हैं कीड़ों की तरह हम अपने बच्चों को छोड़ जाते हैं पूर्वजों के पास काम पर जाने के पहले हम उठाते हैं टोकनियों पर बोझ और समय हम रुखी-सुखी खा और ठंडा पानी पीकर चल पड़ते हैं, अनंत की राह पर और धीरे-धीरे दृश्य में ओझल हो जाते हैं कि कोई देखे तो कह नहीं पायेगा कि अभी कुछ देर पहले हम थे हम अपने पूर्वजों की अस्थियों में रहते हैं- " [04] कैफ़ी आज़मी ~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~* सुना करो मेरी जाँ इन से उन से अफ़साने सब अजनबी हैं यहाँ कौन किस को पहचाने यहाँ से जल्द गुज़र जाओ क़ाफ़िले वालों हैं मेरी प्यास के फूँके हुए ये वीराने मेरी जुनून-ए-परस्तिश से तंग आ गये लोग सुना है बंद किये जा रहे हैं बुत-ख़ाने जहाँ से पिछले पहर कोई तश्ना-काम उठा वहीं पे तोड़े हैं यारों ने आज पैमाने बहार आये तो मेरा सलाम कह देना मुझे तो आज तलब कर लिया है सेहरा ने सिवा है हुक़्म कि "कैफ़ी" को संगसार करो मसीहा बैठे हैं छुप के कहाँ ख़ुदा जाने [05] रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' ~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~* क्या तुम भी सुधि से थके प्राण ले-लेकर अकुलाती होगी! जब नींद नहीं आती होगी! दिनभर के कार्य-भार से थक जाता होगा जूही-सा तनश्रम से कुम्हला जाता होगा मृदु कोकाबेली-सा आनन लेकर तन-मन की श्रांति पड़ी होगी जब शय्या पर चंचलकिस मर्म-वेदना से क्रंदन करता होगा प्रति रोम विकल आँखों के अम्बर से धीरे-से ओस ढुलक जाती होगी! जब नींद नहीं आती होगी! जैसे घर में दीपक न जले ले वैसा अंधकार तन में अमराई में बोले न पिकी ले वैसा सूनापन मन में साथी की डूब रही नौका जो खड़ा देखता हो तट पर - उसकी-सी लिये विवशता तुम रह-रह जलती होगी कातर तुम जाग रही होगी पर जैसे दुनियाँ सो जाती होगी! जब नींद नहीं आती होगी! हो छलक उठी निर्जन में काली रात अवश ज्यों अनजाने छाया होगा वैसा ही भयकारी उजड़ापन सिरहाने जीवन का सपना टूट गया - छूटा अरमानों का सहचर अब शेष नहीं होगी प्राणों की क्षुब्ध रुलाई जीवन भर क्यों सोच यही तुम चिंताकुल अपने से भय खाती होगी? जब नींद नहीं आती होगी!

2 टिप्‍पणियां:

  1. . एक ही ही पोस्ट में आपने सभी कुछ शामिल कर दिया बहुत सुंदर मनभावन पोस्ट के लिए आभार

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  2. kripya ward vrification hataaye usse teep karne me sabhi sahooliyat hoti hai . dhanyawaad. girish ji .

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!

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