1 जुल॰ 2007

परिंदों,

परिंदों,तुम् आज़ाद हो,उड़ो,ऊँचेऔर ऊँचे,जहाँसफलता का दृश्य,बाट जोहता है।जहाँ से कोई योगी,पहले पहल सोचता है ?इस आव्हान का असर,एक पाखी ने फड़फड़ाए पर,टकराकर, जाने किस से -गिर गया -!विस्तृत बयाबान में....!,तबसे अब तकहम,आप और !!ताड़ के पत्तों से,किताबों के जंगल तक-अन्वेषणरत-खोजतेकराहों का कारण।

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!