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18 जुल॰ 2007

मैं तुम्हारा आख़िरी ख़त जाने किस के हाथ आऊँ


मैं तुम्हारा आख़िरी ख़त जाने किस के हाथ आऊँ
तुम पडो इक बार मुझको इक नया संचार पाऊं !
कौन किसकी वेदना पडने चला,
कौन ऊँचे श्रंग पर चडने चला!
कहते हैं गंगा उसे अरु पूजते भी
पीर गिरि की कौन है पड़ने चला !
सोचता हूँ हाल गिरि का पूछ आऊँ .और परवत से आभार पाऊं..?
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हाँ ,समंदर भी अश्कों से भरा है
और वन! दर्द से ही तो हरा है...!
पीर के बिन इस धरा पे कुछ नहीं
पीर बिन वो गवैया बेसुरा है...!
पीर मेरी प्रेयसी है...! जाऊं.... मैं..... अभिसार आऊँ...?

**गिरीश बिल्लोरे मुकुल**

3 टिप्‍पणियां:

कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!

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