26 अग॰ 2007

अपने मतलब के सलाम.....!"


" हज़ूर.........!!"
हजूर ...!! इनके बारे में क्या कहूँ...? हज़ूर बड़ा हुआ सो क्या हुआ जैसे.... अब आगे आप को समझ में ना आया हो तो पूछ लीजिए किसी हिंदी स्कूल के बच्चे से क्योंकि उसे ही मालूम होगा , कांनवेंटिया औलादे तो कबीर को कैसे जान सकतीं हैं। आपको क्या किसी को नहीं मालूम हज़ूर-ए-आला की तारीफ़ .... जो सब करतें हैं उसे आप जोचाहे कहें वो उनकी तारीफ़ क़तई नहीं है वो उनकी औक़ात है जिसे आप सलाम कर रहे होते अक्सर. हज़ूर की तारीफ़ में मैं चन्द बातें कहने जा रहा जिसे आप क़सीदा मत कह देना......!
हज़ूर .. के दरबार मे चेले , पूरे के पूरे” धान्सू-किस्म-के-चिलमची” थे, चिलमचियो की
कार्य-सूचि मे ख़बर लाना भी ज़रूरी काम था .पूरे मुहल्ले की चुगलखोरी की ज़िम्मेदारी जो थी उनके सर सो वे बेचारे हज़ूर के ख़बर के लिए.....!
आज़ाद भारत में हजूरों की खास अहमियत , ये बेचारे न तो घर के होते है ओर
घर में इनको सहज जीवन नहीं मिल पाता, बाहर ये सहज हो गए तो हूजूरी
खतरे मे सो कुल मिला कर वही बात . ना घर के ना घाट के..........!!
तो हुज़ूर .....उन हुज़ूर के एक घर है ....जहाँ वे रहते है । एक घाट है जो दुनिया दारी नामक नदी के किनारे बना है पिछले चुनाव में वहाँ उनको एक कुर्सी मिली थी । उसी पर बैठ कर वो बंसी दाल के बैठे रहते हैं । कोई न कोई मछली फंस ही जाती है उसमें । जन सेवा के नाम पर हुज़ूर का धंधा जारी है।
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पैसा कलेक्ट कर येन के न प्रकारेण काम करा देने में माहिर हजूर की पूरा खानदान सरकारी इमदाद की धारा अपने घर की तरफ मोड़ लेता है। जे० आर० वाइ० की सड़क , से

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!