20 फ़र॰ 2008

तनवीर ने मेरी यह रचना

सत्य के पुजारी,
पाडकास्ट पे सुनिए मेरी बात



सम्बंधों की व्यावसायिकता और व्यवसायिकता के लिये सम्बंधों के लिये जाने जाना वाला यह समय कुल मिलाकर जड़ता का समय है। जीवनों के बीच केवल सम्बंध शब्द के अर्थ को समझना है तो थोड़ा सा बाजारवाद पर नज़र डालें। मैं यदि एक वस्तु बेच रहा हूँ तो ये बाजारवाद आप के लिये मुझमें केवल एक खरीददार का भाव पैदा कर देना होता है और आज इसकी खास ज़रूरत है। यदि विक्रेता के तौर पर यदि मैं यह कर सका तो तय है कि मैं सफल हूँ, व्यवसायिकता के लिये योग्य हूँ।

तुमसे मेरा न कोई लेना देना था, न रहेगा, रहेगी तुम्हारे पास मेरी बेची हुई वस्तु और मेरे पास तुम्हारा पैसा जो कल पूँजी बन कर निगलने को आतुर होगा - समूचे मानव मूल्य।

घबराईए मत बदलते दौर में पूँजीवाद के बारे में मैं नकारात्मक नहीं हूँ। मैं तो सम्बंधों की व्यवसायिकता बनाम व्यवसायिकता के लिये सम्बंध पर एक विमर्श करना चाहता हूँ।

प्रथमत: सफल प्रोफेशनल्स के मामले में आप सहमत हो ही गए होगें।

नहीं तो अब हो जाएंगे- एक बार एक अधिकारी ने सम्पूर्ण उर्जा का दोहन कर उसके मातहत को जाते-जाते कहा- “तुमसे मेरे बेहतरीन प्रोफेशनल रिलेशन थे, इसके अलावा और कुछ नहीं।”

सम्बंधों का रसायन समझ मातहत ने अब अपनी क्षमता और भावात्मकता को पृथक-पृथक कर दिया।

क्षमता के सहारे व्यवसायिक व्यापारिक सम्बंधों का निवर्हन करता- उसके मन में अब अपने संस्थान के लोगों से प्रबंधन से सिर्फ केवल व्यवसायिक सम्बंध हैं।

यह तो संस्थानों की बात है। यहाँ यह एक हद तक जायज है। हद तो तब हो गई- संवेदनाओं की वकालत करने वाला एक शख्स -शहर में अपने अव्यवसायिक होने का डिण्डौरा मण्डला से डिण्डौरी तक पीट मारा। वो और उसके चेले-चपाटी जुट गए, अव्यवसायिकता की आड़ में व्यवसायिकता के ताने-बाने बुनने। सफल भी रहे- बहुतेरों को अपने सौम्य व्यक्तित्व के सहारे बेवकूफ बनाने में।

कुछ तो मूर्ख नहीं बने, वो उसके लिये भात का कंकड़ ज़रूर बने।
सुधि पाठकों - हमारे इर्द गिर्द अब केवल ऐसे लोग ही रह गए हैं उन लोगों की सूची कम होती जा रही है। जो मानवीय गुणों के आधार पर सम्बंध बनाते हैं।

कमोवेश सियासत में भी यही सब कुछ है उन भाई ने बड़ी गर्मजोशी से हमारा किया। माँ-बाबूजी ओर यहाँ तक कि मेरे उन बच्चों के हालचाल भी जाने जो मेरे हैं हीं नहीं। जैसे पूछा-

“गुड्डू बेटा कैसा है।”
“भैया मेरी 2 बेटियाँ हैं।”
“अरे हाँ- सॉरी भैया- गुड़िया कैसी है, भाभी जी ठीक हैं। वगैरा-वगैरा। यह बातचीत के दौरान उनने बता दिया कि हमारा और उनका बरसों पुराना फेविकोलिया-रिश्ता है।

हमारे बीच रिश्ता है तो जरूर पर उन भाई साहब को आज क्या ज़रूरत आन पड़ी। इतनी पुरानी बातें उखाड़ने की। मेरे दिमाग में कुछ चल ही रहा था कि भाई साहब बोल पड़े - “बिल्लोरे जी चुनाव में अपन को टिकट मिल गया है।”

“कहाँ से, बधाई हो सर”
“.... क्षेत्र से”
“मैं तो दूसरे क्षेत्र में रह रहा हूँ। यह पुष्टि होते ही कि मैं उनके क्षेत्र में अब वोट टव्ज्म् के रूप में निवास नहीं कर रहा हूँ। मेरे परिवार के 10 वोटों का घाटा सदमा सा लगा उन्हें- बोले – “अच्छा चलूं जी !”

पहली बार मुझे लगा मेरी ज़िंदगी कितनी बेकार है, मैं मैं नहीं वोट हूँ।

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!