मुझे किसी भी स्तर पर नारी के प्रति शोषक अभिव्यक्ति के लिए अनुराग नहीं रहा.पौरुष का प्रदर्शन बलात कोशिशों ( कदाचित सफल हो जाने) से नहीं होता. यदि यह सच है कि किसी ने जो कि कवि है,साहित्यकार है, और आज की स्थिति में ब्लाॅगर है और वो चाहे मैं ख़ुद ही क्यों न हूँ ऐसा करेगा अक्षम्य होगा.
नारी के लिए "सर्वदा-भोग्या"ज़ैसी हमारी जाहिल सोच कि गुरुदत्त के "वयम-रक्षाम:" उपन्यास के कथानक की पुनरावृत्ति का स्पष्ट संकेत है। वर्तमान भारत मॆ नारी कॆ प्रति सोच तॆजी बदली
(गिरी) बदलाव ने उसे ही (नारी को ही) नुकसान दिया अब तो नौकरी,सत्ता,पद,प्रतिष्ठा,के बूते हर-ओर यही सब.ग़लत देख सुन कर चुप रह जाना नारी का अपमान है।
आइये हम सब इस वृत्ति प्रवृत्ति पर शोक मनाएं । इतना रोएँ जितना की जैसे कि माँ से हम अमिय चाहतें हो तब हमको नारी का अर्थ समझ आएगा ।
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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!