17 अप्रैल 2009

गुमशुदा मानसून

http://www.swpc.noaa.gov/primer/primer_graphics/Sun.png

कुछ पर्यावरण प्रेमियों के,
प्रकृति को बचाने की कोशिशें,
जिनके हाथ लगती है-
एक तपती हुई दोपहरी
और तड़पती देहों का मेला।।

मौसम विभाग की सलाह
अनदेखे ऊसरी दस्तावेज़,
मुँह चिढ़ाते,
धूप में खेतिहर मजूर-
साधना के वादे निभाते।।
उन्हें भी हासिल है,
तपती दोपहरी,
और तड़पती देह का मेला।।

मेधा से बहुगुणा तक अनशनरत तपस्वी,
रियो-डि-जेनरियो के दस्तावेज़।
उगाने को तत्पर-
नई प्रकृति - नए अनुदेश।
मिलेगी-हमें-
दरकती भू
तपती दोपहरियाँ
और तड़पती देहों का मेला।

चित्र साभार : यहाँ से यानी गूगल बाबा की झोली से

3 टिप्‍पणियां:

  1. रियो-डि-जेनरियो के दस्तावेज़ मात्र ग्रीन अर्थ के दस्तावेज बन कर रह गये..बेहतरीन अभिव्यक्ति!!

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  2. सुन्दर प्रस्तुति।

    जिन्हें रातों में बिस्तर के कभी दर्शन नहीं होते।
    बिछाकर धूप का टुकड़ा ओढ़ अखबार सोते हैं।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
    कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

    जवाब देंहटाएं

कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!