11 मई 2009

हम हारे हरकारे, सबके सब जीत गए





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चिंतन घट रीत गए अपने सब मीत नए
हम हारे हरकारे, सबके सब जीत गए
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षटकोणी वार हुए, हर पल प्रहार हुए
शूल पाँव के रस्ते  हियड़े के पार  हुए
नयन हुए  पथरीले अश्रु एक भी न गिरा
वो समझे वो जीते फिर से हम हार गए
लथपथ थे मृत नहीं ,वापस सब मीत गए
हम हारे हरकारे, सबके सब जीत गए ...!!
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Girish Billore Mukul






2 टिप्‍पणियां:

  1. गिरीश जी
    पहले तो आपकी रचना देखूँ---

    चिंतन घट रीत गए अपने सब मीत नए
    हम हारे हरकारे, सबके सब जीत गए

    षटकोणी वार हुए, हर पल प्रहार हुए
    शूल पाँव के रस्ते हियड़े के पार हुए

    नयन हुए पथरीले अश्रु एक भी न गिरा
    वो समझे वो जीते फिर से हम हार गए

    लथपथ थे मृत नहीं ,वापस सब मीत गए
    हम हारे हरकारे, सबके सब जीत गए !!!

    अब तीन- चार बार पढ़कर कुछ कह रहा हूँ

    "शूल पाँव के रस्ते हियड़े के पार हुए "
    और
    "नयन हुए पथरीले अश्रु एक भी न गिरा"

    अब एहसास कर रहा हूँ कि
    कितना दर्द है इन पंक्तियों में..
    इसी को शब्द सामर्थ्य कहा जाता है.

    इस बेहद मार्मिक रचना के के लिए आभार
    जिसे पढ़ कर हृदय भर आया.

    - विजय

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!