बिस्मिल आशिक की आर्त पुकार को "हफ़ीज़" जालंधरी ने बड़ी संजीदा सलाह देकर शांत कराया
क्यों हिज्र के शिकवे करता है ,क्या दर्द के रोने रोता है
अब इश्क किया तो सब्र भी कर,इस में तो यही कुछ होता है
तभी हफ़ीज़ जो होशियारपुर से आए आते ही फलसफा दिया उस आशिक को अब इश्क किया तो सब्र भी कर,इस में तो यही कुछ होता है
"तेरी मंजिल पे पहुँचना कोई आसान न था
सरहदे अक्ल से गुज़रे तो यहाँ तक पहुंचे "
इन हफीजों के बीच "राज़"- "अपनी....?" समस्या लेकर आए
क्या बात थी कि जो भी सूना अनसुना हुआ
दिल के नगर में शोर था कैसा मचा हुआ
शोर से अपना कोई नाता न था बताने आए अब्दुल हमीद 'अदम' ने राज़ साहब के दिल में मचे में अपना हाथ होने से साफ़ साफ़ इनकार कुछ यूं किया
मयक़दा था चांदनी थी मैं न था : इक मुजस्सम बेखुदी थी मैं न था ।
तमाम दुनियाई बातों से उकताए भरे "ज़हीर" काश्मीरी बोल उठे
कितने ही इंकलाब शिकन दर शिकन मिले
आज अपनी शक्ल देख मैं दंग रह गया ।
मैं हाथ की लकीरें मिटाने पे हूँ बज़िद : गो जानता हूँ नक्श नहीं ये सलेट के ।
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गूगल बाबा की झोली से फोटो उठाएं है किसी भी आपत्ति का स्वागत होगा मौन स्वीकृति के लिए अग्रिम आभार
जारी रखें मुशायरा!!
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