21 मई 2009

सरहदे अक्ल से गुज़रे तो यहाँ तक पहुंचे "

बिस्मिल आशिक की आर्त पुकार को "हफ़ीज़" जालंधरी ने बड़ी संजीदा सलाह देकर शांत कराया

क्यों हिज्र के शिकवे करता है ,क्या दर्द के रोने रोता है
अब इश्क किया तो सब्र भी कर,इस में तो यही कुछ होता है
तभी हफ़ीज़ जो होशियारपुर से आए आते ही फलसफा दिया उस आशिक को
"तेरी मंजिल पे पहुँचना कोई आसान न था
सरहदे अक्ल से गुज़रे तो यहाँ तक पहुंचे "
इन हफीजों के बीच "राज़"- "अपनी....?" समस्या लेकर आए
क्या बात थी कि जो भी सूना अनसुना हुआ
दिल के नगर में शोर था कैसा मचा हुआ
शोर से अपना कोई नाता न था बताने आए अब्दुल हमीद 'अदम' ने राज़ साहब के दिल में मचे में अपना हाथ होने से साफ़ साफ़ इनकार कुछ यूं किया
मयक़दा था चांदनी थी मैं न था : इक मुजस्सम बेखुदी थी मैं न था ।
तमाम दुनियाई बातों से उकताए भरे "ज़हीर" काश्मीरी बोल उठे
कितने ही इंकलाब शिकन दर शिकन मिले
आज अपनी शक्ल देख मैं दंग रह गया ।
शिकेब ज़लाली तैश में थे दुनियाँवी हरकतों से कुछ नाराज़ लगे किस्मत की लकीरों का खात्मा करने बज़िद -
मैं हाथ की लकीरें मिटाने पे हूँ बज़िद : गो जानता हूँ नक्श नहीं ये सलेट के
यह मुशायरा देर तक चलता अगरचे मुझे चलिए छोडिए मुशायरे मुसलसल जारी हैंमेरी गुज़ारिश है कि "मुशायरों में कहे जाने वाले कलाम मुकम्मल तब होते हैं जब कि सोच में सकारात्मक परिवर्तन हो "पर यह हो पाएगा कारण साफ़ है कि हमने अक्ल की सरहदें पार कर लीं हैं

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1 टिप्पणी:

कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!