गीतिका
आचार्य संजीव 'सलिल'
अपने मन से हार रहे हैं।
छुरा पीठ में मार रहे हैं॥
गुलदस्ते हैं मृग मरीचिका।
छिपे नुकीले खार रहे हैं॥
जनसेवक आखेटक निकले।
जन-गण महज शिकार रहे हैं॥
दुःख के सौदे नगद हो रहे।
सुख-शुभ-सत्य उधार रहे हैं॥
शिशु-बच्चों को यौन-प्रशिक्षण?
पाँव कुल्हाडी मार रहे हैं॥
राष्ट्र गौड़, क्यों प्रान्त प्रमुख हो?
कलुषित क्षुद्र विचार रहे हैं॥
हुए अजनबी धन-पद पाकर।
कभी ह्रदय के हार रहे हैं॥
नेह नर्मदा की नीलामी।
'सलिल' हाथ अंगार रहे हैं॥
*********************
divyanarmada.blogspot.com
salil.sanjiv@gmail.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!