26 नव॰ 2009

गीतिका: अपने मन से हार रहे हैं -संजीव 'सलिल'

गीतिका

आचार्य संजीव 'सलिल'

अपने मन से हार रहे हैं।
छुरा पीठ में मार रहे हैं॥

गुलदस्ते हैं मृग मरीचिका।
छिपे नुकीले खार रहे हैं॥

जनसेवक आखेटक निकले।
जन-गण महज शिकार रहे हैं॥

दुःख के सौदे नगद हो रहे।
सुख-शुभ-सत्य उधार रहे हैं॥

शिशु-बच्चों को यौन-प्रशिक्षण?
पाँव कुल्हाडी मार रहे हैं॥

राष्ट्र गौड़, क्यों प्रान्त प्रमुख हो?
कलुषित क्षुद्र विचार रहे हैं॥

हुए अजनबी धन-पद पाकर।
कभी ह्रदय के हार रहे हैं॥

नेह नर्मदा की नीलामी।
'सलिल' हाथ अंगार रहे हैं॥

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divyanarmada.blogspot.com
salil.sanjiv@gmail.com

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!