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26 दिस॰ 2009

सिलसिला-ए-उल्फ़त

उनसे मेरी उल्फ़तों का सिलसिला,
चल निकला -- चल निकला




इश्क़ का सैलाब, शक्ले-अश्क लेकर,
ढल निकला -- ढल निकला

--बवाल 
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तो बवाल भाई फिर ये भी  आज़मा लेतें हैं ....? 
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जबलपुर  के संगीतकार सुनील पारे
जी की ब्रिगेड के लिए खास पेश कश

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बवाल  भाई  आपकी पोस्ट में हस्तक्षेप के लिए माफ़ करेंगे मैं चाहता हूँ 
आपकी पोस्ट  के ऊपर कोई पोस्ट तब तक न आये जब तक की आप के सुधि पाठक इधर  आ रहें हैं 
सादर :"मुकुल"

7 टिप्‍पणियां:

  1. बवाल जी यह इश्क है ही ऎसा...
    बहुत सुंदर लगी आप की यह रचना, चंद शव्दो मै बहुत कुछ कह दिया

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  2. बहुत सुन्दर चंद शब्दों मे इश्क की दास्तँ?जिसे शायरों ने कहने मे इतना विशाल साहित्य रच दिया। वाह । धन्यवाद्

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  5. बवाल जी
    अच्छा लगा....

    एक पहलू और है....

    ज़ख्म न कुरेदो,
    जानेगी सारी दुनिया .
    बेवफाई उनकी,
    जिक्रे हयात मेरे ...

    - विजय

    जवाब देंहटाएं
  6. वाह वाह बवाल!!

    क्या खूब आये....

    अब तो पार्टी हो जाये...


    मय के साथ, मछली का कबाब
    तल निकला...तल निकला!!

    -चीयर्स!!!

    जवाब देंहटाएं
  7. पारे जी को भी सुन लिया, बढ़िया.

    जवाब देंहटाएं

कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!

कितना असरदार

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