5 फ़र॰ 2010

उत्पाद महंगे , उत्पादक भिखमंगे


बचपन में भी मैं उतना ही नालायक और लम्पट मूर्ख था जितना आज हूँ ,उसमें कहीं कोई फर्क नहीं आया है, और अब तो शायद आयेगा भी नहीं, इसलिए आपने देखा ही होगा कि मैं कभी पढाई लिखाई की बातें नहीं करता.लेकिन आज पता नहीं क्यों रह रह कर अर्थशाश्त्र का एक नियम बड़े जोरों से याद आ रहा है। वैसे तो , मेरा मानना ये है कि ये अर्थशास्त्र का विषय लेकर भी जिंदगी में मुझे ऐसा कोई अनोखा लाभ नहीं हुआ कि लगता कि मेरा अर्थशास्त्र के बोरिंग नियमों को पढ़ना सार्थक रहा। खैर ये तो मेरी बात हुई , छोडिये इसे, मैं कह रहा था कि मैंने पढा था कि जब भी मांग अधिक होती है उत्पाद महंगा होता है , और यदि उत्पाद महंगा होगा तो उत्पादक मालामाल होगा। मैंने इस बात को अब तक सच माना हुआ था, हाँ अब तक...

दरअसल हुआ ये कि ;उस दिन अचानक श्रीमती जी की जगह जोश में मैं ख़ुद राशन लाने चला गया, वहाँ जाकर मेरे अंदाजे का क्या रहा, या कि मुझे आंटे दाल का भाव कैसे पता चला, और ये कि मुझे ये नहीं समझ आया कि अब तक सब्जी , फलों वालों ने अपने यहाँ क्रेडिट कार्ड मशीन क्यों नहीं लगाई, इन सब बातों को तो रहने ही दिजीये, मैंने तो ये सोचा कि यार जब आंटे , चावल, दालों, सब्जी आदि का भाव इतना आसमान छू रहा है तो अपने किसान काका गाओं में बैठ कर चांदी कूट रहे होंगे , तभी कहूं कि इतने दिनों से मुझसे बात भी नहीं की। मैंने तय किया कि आज ही फोन मिलाता हूँ।

फोन मिलते ही मैंने तो बस हालचाल ही पूछा कि वो बगैर पूछे ही शुरू हो गए, " बेटा मैं तो पिछले कई दिनों से तुमसे बात करने की सोच रहा था , मगर झिझक के कारण कुछ कह नहीं पा रहा था , दरअसल तुम्हारी काकी, तुम्हारे भैया, भाभी सभी बीमार पड़े हैं और घर में इतने पैसे भी नहीं हैं कि इलाज करा सकूं। यहाँ सबका यही हाल है । वो जो कोने के मकान वाले दिनू चाचा थे उन्होंने तो परसों ही फांसी लगा ली बेटा साहूकार के कर्जे के कारण। तू जल्दी से कुछ पैसे भेज सके तो अच्छा हो।"

मैं सोच में पड़ा हुआ हूँ कि जब हम यहाँ आटे, दाल, चावल , का इतना दाम, चुका रहे हैं तो फ़िर उनका हाल इतना बुरा क्यों हैं जो इसे उगा, कर, पला बढ़ा कर, तैयार करके हमारे पास भेज रहे हैं। ये उलटा अर्थशास्त्र मेरे पल्ले तो पड़ ही नहीं रहा , आप को कुछ समझ आ रहा है तो बतायें.?

8 टिप्‍पणियां:

  1. बात तो भैया १०० % सही है पर का करे
    बहुत से बिरोधाभास जिन्दगी से टकराते है

    मै तो इसी से परेशान हू कि -

    जिन्दगी ४ दिन की तो टेस्ट मैच ५ दिन का क्यू है

    जवाब देंहटाएं
  2. अर्थशास्त्र पर दलालीशास्त्र हाबी है, इसलिए नये समीकरण खड़े हो गये हैं.

    जवाब देंहटाएं
  3. समीर लाल जी की बातों से सहमत हूं .. दलाली जबतक समाप्‍त नहीं होगी .. किसानों का यही हाल रहेगा !!

    जवाब देंहटाएं
  4. विषमताएँ इतनी भयानक हो चुकी है कि --
    अर्थशास्त्र के सिध्दांत जमीनी लोगों के लिये तो नहीं हैं शायद

    जवाब देंहटाएं
  5. अर्थशास्‍त्र मे तो माँग का लोच(ा) है। बढि़याँ लगी भई जी

    जवाब देंहटाएं
  6. ाजय जी जब आपको समझ नही आया तो हम तो आपसे अधिक नालायक हैं । इसे तो शायद भगवान भी नही समझ सकेंगे दलालों ने इसे इतना जटिल कर दिया है। धन्यवाद्

    जवाब देंहटाएं
  7. Nice Posting Sir..


    Dear Sir,

    कुछ दिनों पहले मेरी आईडी हैक कर ली गई। मैंने काफी प्रयास किया लेकिन उसे वापस पाने में असमर्थ रहा। आईडी हैक हो जाने की वजह से मैं अपने ब्लॉग http://koitohoga.blogspot.com/ को एक्सेस नहीं कर पा रहा हूँ... इसलिए मैंने नया ब्लॉग http://dhentenden.blogspot.com बना लिया है। उम्मीद करता हूँ कि मेरे इस ब्लॉग को भी आप लोगों का वही प्यार मिलता रहेगा!!!


    Regards

    Ram K Gautam

    जवाब देंहटाएं

कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!