15 मार्च 2010

जबलपुर में चिट्ठा चर्चा पर दोहे: ---'सलिल'

जबलपुर में चिट्ठा चर्चा पर दोहे:

चिट्ठाकारों को 'सलिल', दे दोहा उपहार.
मना रहा- बदलाव का, हो चिट्ठा औज़ार..

नेह नरमदा से मिली, विहँस गोमती आज.
संस्कारधानी अवध, आया- हो शुभ काज..

'डूबे जी' को निकाले, जो वह करे 'बवाल'.
किस लय में 'किसलय' रहे, पूछे कौन सवाल?.

चिट्ठाकारों के मिले, दिल के संग-संग हाथ.
अंतर में अंतर न हो, सदय रहें जगनाथ..

उड़ न तश्तरी से कहा, मैंने खाकर भंग.
'उड़नतश्तरी' उड़ रही', कह- वह करती जंग..

गिरि-गिरिजा दोनों नहीं, लेकिन सुलभ 'गिरीश'.
'सलिल' धन्य सत्संग पा, हैं कृपालु जगदीश..

अपनी इतनी ही अरज, रखे कुशल-'महफूज़'.
दोस्त छुरी के सामने, 'सलिल' न हो खरबूज..

बिना पंख बरसात बिन, करता मुग्ध 'मयूर'.
गप्प नहीं यह सच्च है, चिटठाकार हुज़ूर!..

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3 टिप्‍पणियां:

  1. चिट्ठाकारों के मिले, दिल के संग-संग हाथ.
    अंतर में अंतर न हो, सदय रहें जगनाथ..
    or ye bhee mazedar hai
    अपनी इतनी ही अरज, रखे कुशल-'महफूज़'.
    दोस्त छुरी के सामने, 'सलिल' न हो खरबूज..
    bahut sundar

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  2. जय हो चिट्ठाकारों की. बहुत बढ़िया दोहे मौके पर. :)

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!