माचिस की तीली के ऊपर
बिटिया की पलती आग
यौवन की दहलीज़ पे जाके
बनती संज्ञा जलती आग
बिटिया की पलती आग
यौवन की दहलीज़ पे जाके
बनती संज्ञा जलती आग
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जब विकास का घूमा पहिया
तन पत्तों से ढांप लिया ...,
कौन है अपना कौन पराया
यह सच हमने भांप लिया !
तभी भूख ने दल बनवाये
उगी मन मन भ्रम की आग !
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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!