19 अग॰ 2010

एक कविता; होता था घर एक.' संजीव 'सलिल'

एक कविता;

होता था घर एक.'

संजीव 'सलिल'
*
*
शायद बच्चे पढेंगे
'होता था घर एक.'
शब्द चित्र अंकित किया
मित्र कार्य यह नेक.
अब नगरों में फ्लैट हैं,
बंगले औ' डुप्लेक्स.
फार्म हाउस का समय है
मिलते मल्टीप्लेक्स.
बेघर खुद को कर रहे
तोड़-तोड़ घर आज.
इसीलिये गायब खुशी
हर कोई नाराज़.
घर न इमारत-भवन है
घर होता सम्बन्ध.
नाते निभाते हैं जहाँ
बिना किसी अनुबंध.
भारत ही घर की बने
अद्भुत 'सलिल' मिसाल.
नाते नव बनते रहें
देखें आप कमाल.
बिना मिले भी मन मिले,
होती जब तकरार.
दूजे पल ही बिखरता
निर्मल-निश्छल प्यार.
मतभेदों को हम नहीं
बना रहे मन-भेद.
लगे किसी को ठेस तो
सबको होता खेद.
नेह नर्मदा निरंतर
रहे प्रवाहित मित्र.
भारत ही घर का बने
'सलिल' सनातन चित्र..
*
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2 टिप्‍पणियां:

  1. घर न इमारत-भवन है
    घर होता सम्बन्ध.
    नाते निभाते हैं जहाँ
    बिना किसी अनुबंध.
    100 pratishat sahi baat....bahut hi bhadiya rachana!
    Dhanywaad.

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!