किसे आत्म-कल्याण से अरुचि होगी सभी जो आये थे अपनी मर्ज़ी से स्वामी जी के पास. उनने (गुरु ने) बांधा तो न था किसी को गुरु तो जन कल्याण के लिये निकलता है "प्रापंचिक-दुनियां" से उसे इस बात से क्या लेना देना कि कौन क्या है. गरीब अमीर सभी थे उनके शिष्य . गुरु को न तो कुबेर का खज़ाना कमाना था और न ही कोई सत्ता हासिल करनी होती थी. स्वामी जी के जन्मदाता पिता ब्रिटिश इंडिया में जंगल विभाग मे अधिकारी थे. रामटेक नागपुर में जन्में स्वामी जी माता-पिता की दूसरी संतान शुद्धानंदनाथ थे . उनके बड़े भाई भी योगी थे जिनका आश्रम जबलपुर में नर्मदा तट पर स्थित ग्वारीघाट में श्रीपाद-आश्रम के नाम से स्थित है. दो विषयों में एम०ए० की डिग्री हासिल कर ली थी. उस पर हिन्दी,अंग्रेजी,बांग्ला,मराठी के ज्ञाता स्वामी जी को उस दौर में बेहतर नौकरी क्यों न मिलती.किंतु राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में एक संगठन (जिसका नाम यहां उल्लिखित करना आवश्यक नहीं ) से जुड़ कर आज़ादी मिलने के बाद समाज के निर्माण के लिये संकल्पित युवा अवस्था में ही सन्यास ले लिया था. स्वामी जी 1950-51 में मैहर रामबाग आश्रम की स्थापना की तथा 1960 में श्रीधाम-आश्रम,शेरगंज पोस्ट:-महदेवा,जिला:-सतना में आश्रम की स्थापना की. और इसी वर्ष की शारदीय नवरात्र में विभाजित पाकिस्तान से आये शर्णार्थीयों में स्वामीं जी के शिष्य श्रीयुत हूंदराज नवानी भी उनके शिष्यों में एक हैं जिनकी साथ संयुक्त रूप से "मेलोडी-आफ़ लाइफ़" का प्रकाशन किया गया उसके कुछ पन्ने "मेलोडी-आफ़ लाइफ़" पर अपलोड कर पाया हूं खैर वो भी एक वादा है यथा सम्भव अंतर्जाल पर गुरु देव के पत्रों संकलन कर दूंगा ये वादा रहा.
सूत्र :01 "प्रेम" शारदीय-नवरात्री,श्रीधाम सतना
21-09-1960
"प्रेम " ही संसार की नींव है. वह प्रेम आसक्तिमय हो या साहजिक होवे, प्रेम व्यवहार में सुख और शांति उत्पन्न करता है ,त्याग सेवा और दिव्यता की शिक्षा देता है
प्रापंचिक-संबंध प्रेम की रस्सी बांधी जाये तो वह प्रपंच देवताओं को भी मत्सर उत्पन्न करने वाला होता है,.
आक के प्रपंच और व्यव्हार जीवन में इसका सर्वथा अभाव है. आज़ के संबंध परस्पर हक़ के, अधिकार मांगने वाले ठेके हैं. यह टेका समाज की क्षीण रूढ़ियों से कसा है इसलिये ये संबंध तोड़ना आसान हो गया है.
"आज प्रेम के स्थान में भिन्न-भिन्न रूप में अहंकार विराजमान है "
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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!