इसके पहले कि स्वामी जी के सूत्रों की प्रस्तुत हो उन्हीं के बताए अनुसार साधना-के भागों का चिंतन कर लिया जावे. जो जीवन को आध्यात्मिकता से सहजता से जोड़ सकती है. जीवन के सर्वोच्च सत्य की पहचान के लिए ज़रूरी है कि सभी साधक ही बनें-यही मार्ग है जिस पर चलकर हम जीवन को एक सही जीवन का नाम दे सकें
साधना को स्वामी जी ने चार स्वरूपों बांटा है जिसे क्रमश: निम्नानुसार क्रमों में अनुपालन के आदेश दिये गये
करुणा:- मानव हृदय में करुणा जो प्रेम एवम दया का सम्मिश्रण है दया व्यक्ति एवम परिस्थिति वश उपजती है जिसका क्षय सम्भव है किंतु करुणा स्वभाव के साथ युग्मित होकर "अखिल-ब्रह्मांड-हेतु परिलक्षित " होती है. अर्थात प्रेम का सम्पूर्ण विकास ही तो करुणा है. जो सर्वान्मुखी है न कि व्यक्ति,वर्ग,समूह,सम्प्रदाय,भौगोलिक परिधि मात्र के लिये बल्कि चराचर के लिये होती है.
मैत्री:-साधना का दूसरा स्वरूप मैत्री है जिसका विपरीत कुछ नहीं होता. अमैत्री शब्द भी अर्थ नहीं दे रखता है अपने साथ. यानी मैत्री वो जो सार्वब्रह्मांडीय हो यह भी भाव ही है जिसका साधक के लिये महत्व होता है.
मुदिता:-अकारण ही प्रसन्नता से कुछ ऊपर देखें हो जब इस भाव का प्राकट्य होता तो उसे शाब्दिक अर्थों में प्रफ़ुल्लित होना आनन्द भार से सम्पृक्त होना या सर्वोच्च रूप से "अहोभाव..!" के अर्थ में समझना चाहिये.
उपेक्षा:- सामान्य शाब्दिक अर्थों में इसे कुछ भी समझा जावे किंतु इसे निर्भयता के क़रीब लाकर देखना है साधक को . यानी वो साधना करे इस भय के बिना कि क्या होगा कैसे होगा फ़ल क्या होगा, कहीं पीछे तो न र जाऊंगा. यानी अपने अस्तित्व को गुरु/प्रभू/ईष्ट के हवाले कर देना . यह प्रश्न करना खुद से :- "मैं कौन हूं"
मित्रो तभी तो साधना सम्पूर्ण होगी साधक में दिव्यता का प्रवाह होगा. और होगी साधना की शुरुआत.
उपयोगी ज्ञान जीवन के लिये।
जवाब देंहटाएंगिरीश सुपुत्र
जवाब देंहटाएंआशिर्वाद
लेख पढ़ा बहुत मन भाया
आज के युवा पीडी ओर नेता इन पद्ध चिन्हों पर चलते
देश में त्राही माम त्राही माम हो रहा है
धन्यवाद
के साथ आपकी गुड्डो दादी चिकागो अमरीका से