बेटी बचाओ अभियान
कन्या भ्रूण ह्त्या निश्चित तौर पर एक जघन्य सामाजिक बुराई है. सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं, संगठनों, आम तथा खास सभी को भ्रूण ह्त्या पता लगाने एवं रोकने हेतु प्रभावी कदम उठाने की आवश्यकता है. समाज में महिलाओं के प्रति नकारात्मक सामाजिक सोच के फलस्वरूप ही बेटियों में शिक्षा का वांक्षित स्तर नहीं बढ़ सका है. दहेजप्रथा कन्या भ्रूण ह्त्या का मूल कारक माना जा सकता है. इसके विरुद्ध कठोर एवं प्रभावी कानून बनाए जाने की आवश्यकता है. माता-पिता की बेटियों के प्रति असुरक्षा की भावना भी एक कारण है जिसके तहत बेटी का घर से बाहर निकालना, विद्यालयों
में आये दिन अश्लील हरकतें प्रकाश में आना, अस्पतालों में चिकित्सकों से डर, सडकोंपर दोपाये जानवरों की कुत्सित भावनाएँ,सरकारी एवं गैर सरकारी कार्य के दौरान अभिभावकों में शंका- कुशंकाओं को जन्म देता है.
आज लक्ष्मी, मैत्रेयी, गार्गी, महादेवी जैसी विलक्षण महिलाओं के देश में बेटियों का पैदा होना चिंता का विषय बन जाता है जबकि हमें स्वयं को गर्वित होना चाहिए कि बेटों से ज्यादा माँ-बाप से भावनात्मक रूप से बेटियाँ ही जुड़ी होती हैं. घर एवं समाज में बेटियों की अहमियत से सभी भलीभाँति परिचित हैं. आज के बदलते परिवेश में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि बेटियों का सुनहरा भविष्य उनकी प्रतीक्षा कर रहा है. बेटा-बेटी में फर्क करने से सबसे पहले ममतामयी माँ का हृदय ही आहत होता है. ऐसे समय में माँ की दृढता, आत्मविश्वास एवं जवाबदेही और बढ़ जाती है. उसे समाज, परिवार और स्वयं पर भी जीत हासिल करना होगी. जब बेटियों को समाज और शासन आगे बढ़ने का मौका देने लगा है तब यह भेद कैसा? यह तो सृष्टि से बगावत ही कहा जाएगा. आज हमें स्वीकारना ही होगा कि कन्या भ्रूण हत्या, बेटों की चाह के अलावा और कुछ भी नहीं है जिसे पुरुष प्रधान समाज में बड़ी अहमियत के तौर पर देखा जाता है तथा बेटियों के विषय में हीन भावना के परिणाम स्वरूप कन्या भ्रूण हत्या की जाती है. यह तय है कि पुरुष प्रधान समाज में इस भावना की जड़ें अभी तक जमी हुई हैं.
यूनिसेफ के अनुसार भारत में लगभग ५ करोड़ बेटियाँ एवं स्त्रियाँ गायब हैं. विश्व के अधिकतर देशों से तुलना की जाये तो भारत में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की संख्या कम होती जा रही है. संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार भारत में अनुमानतः प्रतिदिन २००० हजार कन्या भ्रूण हत्याएँ अवैध रूप से होती हैं जिससे बाल अत्याचार, विवाहेत्तर यौन सम्बन्ध तथा यौनजनित हिंसा को बढ़ावा मिला है. यह एक विकासशील राष्ट्र के लिए बुरा संकेत है.२०११ की जनगणना में सामने आये आँकड़ों में कम शिशु लिंगानुपात ने देश की चिंता बढ़ा दी है. ऐसे में इस समस्या के निराकरण हेतु विशेष कार्ययोजना की आवश्यकता प्रतीत होती है.
जिस देश का इतिहास स्त्रियों की सेवा-भावना, त्याग और ममता से भरा पड़ा हो वहाँ अब उसी के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाना पुरुषों के लिए लज्जा की बात है. हीन विचारधारा एवं रूढ़िवादी प्रथाओं के कम होने पर भी कन्या भ्रूण ह्त्या का प्रतिशत बढ़ना हमारे समाज के लिए घातक हो सकता है. वंश परम्परा का प्रतिनिधित्व, बुढापे में सहारा की निश्चिन्तता एवं आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए परिवार में बेटों को प्रधानता दी जाती है. इसी सोच ने धीरे धीरे अपनी जड़ें मजबूत कर ली हैं
अब शिक्षा के सुधरते स्तर से इस कुप्रथा को उखाड फेकने की संभावना बढ़ी है परन्तु यह भावना अभी ग्रामीण एवं पिछड़े वर्ग तक पहुँचना शेष है. परमात्मा यदि सृष्टि निर्माता है तो नारी संतान का निर्माण करती है, जिससे समाज का अस्तित्व जुड़ा है फिर बिना नारी के समाज का बढ़ना क्या संभव है?
वर्तमान में नारी का आत्मनिर्भर होते जाना, सकारात्मक योगदान एवं घर-बाहर सामान रूप से अपनी योग्यता का लोहा मनवाना क्या हमारे लिए प्रमाणिक तथ्य नहीं है? फिर कन्या भ्रूण ह्त्या किस मानसिकता का द्योतक है? कन्या विरोधी मानसिकता केवल अशिक्षित एवं पिछड़े वर्ग में ही बलवती नहीं है, इसकी जड़ में ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं दैविक मान्यताओं तथा रूढ़िवादी प्रथाओं का ज्यादा हस्तक्षेप समझ में आता है. हमें इन विद्रूपताओं से निपटने के लिए अब आगे आना बेहद जरूरी हो गया है. पारिवारिक कार्यों में सहभागिता, व्यवसाय-भागीदारी में विश्वसनीयता एवं उत्तराधिकार के साथ साथ बुढापे में सहारे के रूप में बेटियों की अपेक्षा बेटों को ही समाज में मान्यता प्राप्त है. लड़का घर की उन्नति में सहयोग एवं श्रीवृद्धि करता है जबकि बेटियाँ पढ़ाई-लिखाई और पालन-पोषण के खर्च के बाद भी माता पिता को दहेज के बोझ से दबा कर पराये घर चली जाती हैं. इन सबके अतिरिक्त धार्मिक कार्यों में हिन्दु प्रथाओं के अनुसार केवल बेटे ही सहभागी बन सकते हैं. आत्मा की शान्ति हेतु बेटे द्वारा ही माता पिता को मुखाग्नि देने की मान्यता है. ऐसा नहीं है कि शासन के प्रयास कम हैं, परन्तु उनके क्रियान्वयन में कहीं न कहीं कमी के चलते अपेक्षित परिणाम हमारे सामने नहीं आ पाते वहीं हमारे समाज की उदासीनता भी आड़े आती है. समाज का इस विषय पर जागरूक होना अब अत्यावश्यक हो गया है. शासन के दहेज विरोधी क़ानून, शिशु लिंग की जानकारी के विरुद्ध क़ानून, बेटी की पैतृक संपत्ति में बराबर की हिस्सेदारी के क़ानून एवं बेटियों के अधिकार के क़ानून लागू किये जाना इसके उदाहरण समाज के सामने हैं. यह मिशन तब सफल होगा जब नेता, अफसर और आम जनता में एक समन्वय स्थापित होगा.
पश्चिमी देशों के अंधानुकरण से भारत में भी अत्याचार, नारी अपमान, यौन शोषण की घटनाएँ दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं. गांधी, बुद्ध और महावीर के देश में अब आध्यात्म एवं अहिंसा ने भी किनारा कर लिया है. कन्या भ्रूण ह्त्या एक अमानवीय तथा क्रूर कृत्य है. अहिंसा-प्रधान देश में कलंक है. यह सब हमारे दिमाग से उपज कर समाज में फ़ैली कुप्रथाओं-परम्पराओं का कुपरिणाम कहा जा सकता है. हम कन्या जनित अपमान, बेबसी, दहेज, असुरक्षा जैसे कारकों से प्रभावित हो गए हैं, जो अब शिक्षित समाज से खत्म होना चाहिए. आज अत्याधुनिक तकनीक ने कन्या भ्रूण परीक्षण के उपरान्त कन्या भ्रूण ह्त्या का औसत बढ़ा दिया है. यहाँ दुःख की बात यह भी है कि वह समाज जो नारी अस्मिता, फ़िल्मी कल्चर, ब्यूटी काम्पटीशन, खुले यौन सम्बंध,लिव-इन एवं वेलेंटाइन कल्चर का पुरजोर समर्थन करता है, वही कन्या भ्रूण ह्त्या से जुड़े सवाल पर सकारात्मक तथा कड़ा प्रतिरोध क्यों नहीं करता ?
बेटी बचाओ अभियान के सन्दर्भ में कहा जा रहा है कि प्रदेश के मुख्य मंत्री से लेकर कर्मचारी तक इस कार्यक्रम को सफल बनाने में जुट गए हैं. अब यह देखना बाकी है कि इस अभियान की रूप-रेखा, दिशा-निर्देश औए कार्यान्वयन का स्वरूप कितना कारगर बनता है. यहाँ मैं यह बताना आवश्यक समझता हूँ कि सर्वप्रथम शासकीय, अशासकीय एवं प्रदेश की जनता की सहभागिता सुनिश्चित करने हेतु भी कार्य योजना पर समग्र दृष्टिपात करना होगा.
बेटियों के सम्मान एवं भेदभाव की समाप्ति हेतु राज्य में व्यापक स्तर पर कार्य करने की आवश्यकता है. कन्या भ्रूण हत्या के प्रति लोगों को हतोत्साहित करना इस मिशन का मुख्य मकसद है. यह ‘हतोत्साह’ समाज में कैसे और किन किन सुविधाओं तथा क़ानून से संभव है. यह काम सरकार को प्रमुखता से करना होगा. पिछड़ी एवं गरीब जनता को सामाजिक सुरक्षा, सहायता, बेटियों की विकासपरक योजनायें कारगर हो सकती हैं. जब तक समाज कन्या को बोझ समझना बंद नहीं करेगा, तब तक इस मिशन पर अनवरत कार्य करने की आवश्यकता है.
जानकार सूत्रों के हवाले से कहा जा रहा है कि कन्या भ्रूण ह्त्या ९ प्रतिशत वार्षिक दर से बढ़ रही है. केवल डॉक्टरों पर अंकुश लगाने से इस भ्रूण ह्त्या का ग्राफ कम होने से रहा. कन्या भ्रूण हत्या करने वाले, कराने वाले तथा प्रत्यक्ष दर्शियों पर भी नज़र रखने हेतु शासन को कठोर कदम उठाने की जरूरत है. वैसे हम यह भी कह सकते हैं कि यदि यह कुप्रथा नहीं बढ़ रही होती तो बेटी का लिंगानुपात क्यों कम होता. कन्या-क्रच, स्ट्रिंग ऑपरेशन ग्रुप रैलियाँ, कन्या दिवस, लाडली लक्ष्मी योजना या फिर विभिन्न प्रोत्साहन योजनाओं को क्यों चलाना पड़ता. इसका सीधा सा आशय है कि अभी तक हम कन्या भ्रूण ह्त्या पर वांछित अंकुश लगाने में असमर्थ रहे हैं.
भारत की २००१ की गणना में सामने आये तथ्यों में बेटियों के घटते लिंगानुपात से चिंतित होकर शासन ने इस दिशा में अपने प्रयास तेज कर दिए थे फिर भी नई नई भ्रूण परीक्षण की सुविधाओं एवं बच्चियों के प्रति उदासीनता के चलते इस अनुपात में गिरावट जारी है. अब तो मात्र ५ सप्ताह के भ्रूण का लिंग परीक्षण करने वाले अत्याधुनिक रक्त परीक्षण किट ‘बेबी जेंडर केंडर’ के चलन से कन्या भ्रूण हत्या और भी आसान हो गई है. इसका उपयोग अविलम्ब प्रतिबंधित होना चाहिए.
आज जब बेटियाँ अनेक क्षेत्रों में बेटों से भी आगे निकल चुकी हैं, अब बेटा बेटी में भेदभाव समाप्त हो जाना चाहिए और माँ-बाप को निश्चिन्त होकर हर क्षेत्र में उसकी भागीदारी से सहमत होना चाहिए. बेटे के जन्म की तरह ही जब तक बेटी के जन्म पर समाज हर्षित नहीं होगा तब तक हमारे समाज का समग्र विकास संभव नहीं है. हमारे प्रधान मंत्री डॉ. सिंह ने भी कहा है कि कन्या भ्रूण ह्त्या अस्वीकार्य अपराध है जिसे व्यापक रूप से नवीन तकनीकों के दुरुपयोग से बढ़ावा दिया जा रहा है तथा जिसका विचारहीन व्यापारिक दुरुपयोग रोकना चाहिए.
हमें भी अपनी मानसिकता को बदलना होगा और याद रखना होगा कि भ्रूण में भी जीव होता है जिसकी हत्या करना हिंदू धर्मानुसार पाप माना गया है. इस पाप की सहज स्वीकृति परिवार के सारे सदस्य कैसे दे सकते हैं? अंध विश्वास, पाखण्ड एवं सामाजिक कुरीतियों को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए. समाजसेवियों, बुद्धिजीवियों एवं समाज की जागरूक जनता भी परस्पर समन्वय स्थापित करे. अभी तक बेटियों की स्थिति ज्यादा सुदृढ़ नहीं हो पाई है. आज भी पिता होने का मतलब अपना सिर झुकाना ही कहलाता है. बेटियों के विवाह में आर्थिक बोझ पड़ता ही है. कभी कभी तो विवशता में बेटी, पिता या माँ, भाई आत्महत्या तक करते पाए गए हैं.
वक्त धीरे धीरे बदल रहा है. भ्रूण हत्या के साक्षी होने पर हमें आगे आकार प्रतिरोध और कानूनी कार्यवाही में अपना सहयोग प्रदान करना चाहिए. केवल अफ़सोस भर करके चुप नहीं बैठना चाहिए. डॉक्टरों को चंद पैसों की लालच में कंस नहीं बनाना चाहिए. भ्रूण हत्या करने वाले परिवारों का समाज द्वारा बहिष्कार किया जाना चाहिए. इस लिए अब समय की यही पुकार है कि हम सब एक सचेतक की भूमिका का निर्वहन करें तभी हम इस कन्या भ्रूण ह्त्या के घिनोने कृत्य पर अंकुश लगाने में सफल होंगे. मेरे विचार से बेटी बचाओ अभियान को प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया, इंटरनेट, ब्लाग्स, नुक्कड़, नाटक, रैलियाँ, नारालेखन, पेम्पलेट्स, एस एम एस के माध्यम से व्यापक प्रचारित-प्रसारित कर सफल बनाया जा सकता है. मैं भी इस “बेटी बचाओ अभियान” से जुड कर अधिक से अधिक सहभागिता प्रदान करने में अपने आप को धन्य समझूँगा. जय भारत.
- विजय तिवारी “किसलय”
२४१९, विसुलोक, मधुवन कालोनी,
विद्युत उप केन्द्र के आगे, उखरी रोड,
जबलपुर (म.प्र.) ४८२००२.
समस्या व्यापक है और ऐसे अभियान अगर कुछ और नहीं तो जागरूकता तो लायेंगे ही। हाँ समस्या के कारणों को पश्चिम के अन्धानुकरण पर थोपना मैं ठीक नहीं समझता हूँ। पश्चिम आज इतना आगे है तो अपने चरित्र बल पर - काश हम उनका अनुकरण कर पाते। कन्या हत्या भारत में पहले भी होती थीं। कितने गाँवों में 100-100 साल तक बरातें नहीं आयीं। अपनी कमियों को दूर करने के लिये उनकी ज़िम्मेदारी लेना भी सीखना पड़ेगा।
जवाब देंहटाएंसामयिक व सार्थक चिन्तन।
जवाब देंहटाएंआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार के चर्चा मंच पर भी की गई है! यदि अधिक से अधिक पाठक आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
जवाब देंहटाएंसार्थक व सटीक लेखन ।
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