दोहा सलिला: दोहों की दीपावली, अलंकार के संग.....
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दोहों की दीपावली, अलंकार के संग.
बिम्ब भाव रस कथ्य के, पंचतत्व नवरंग..
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दिया दिया लेकिन नहीं, दी बाती औ' तेल.
तोड़ न उजियारा सका, अंधकार की जेल.. -यमक
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गृहलक्ष्मी का रूप तज, हुई पटाखा नार. -अपन्हुति
लोग पटाखा खरीदें, तो क्यों हो बेजार?. -यमक,
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मुस्कानों की फुलझड़ी, मदिर नयन के बाण. -अपन्हुति
जला फुलझड़ी चलाती, प्रिय कैसे हो तरण?. -यमक
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दीप जले या धरा पर, तारे जुड़े अनेक.
तम की कारा काटने, जाग्रत किये विवेक.. -संदेह
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गृहलक्ष्मी का रूप लख, मैया आतीं याद.
वही करधनी चाबियाँ, परंपरा मर्याद.. -स्मरण
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मानो नभ से आ गये, तारे भू पर आज. -भ्रांतिमान
लगे चाँद सा प्रियामुख, दिल पर करता राज.. -उपमा
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दीप-दीप्ति दीपित द्युति, दीपशिखा दो देख. -वृत्यानुप्रास
जला पतंगा जान दी, पर न हुआ कुछ लेख.. -छेकानुप्रास
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दिननाथ ने शुचि साँझ को, फिर प्रीत का उपहार.
दीपक दिया जो झलक रवि की, ले हरे अंधियार.. -श्रुत्यानुप्रास
अन्त्यानुप्रास हर दोहे के समपदांत में स्वयमेव होता है.
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लक्ष्मी को लक्ष्मी मिली, नर-नारायण दूर. -लाटानुप्रास
जो जन ऐसा देखते, आँखें रहते सूर..
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घर-घर में आनंद है, द्वार-द्वार पर हर्ष. -पुनरुक्तिप्रकाश
प्रभु दीवाली ही रहे, वर दो पूरे वर्ष..
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दीप जला ज्योतित हुए, अंतर्मन गृह-द्वार. -श्लेष
- संजीव 'सलिल'
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दोहों की दीपावली, अलंकार के संग.
बिम्ब भाव रस कथ्य के, पंचतत्व नवरंग..
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दिया दिया लेकिन नहीं, दी बाती औ' तेल.
तोड़ न उजियारा सका, अंधकार की जेल.. -यमक
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गृहलक्ष्मी का रूप तज, हुई पटाखा नार. -अपन्हुति
लोग पटाखा खरीदें, तो क्यों हो बेजार?. -यमक,
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मुस्कानों की फुलझड़ी, मदिर नयन के बाण. -अपन्हुति
जला फुलझड़ी चलाती, प्रिय कैसे हो तरण?. -यमक
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दीप जले या धरा पर, तारे जुड़े अनेक.
तम की कारा काटने, जाग्रत किये विवेक.. -संदेह
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गृहलक्ष्मी का रूप लख, मैया आतीं याद.
वही करधनी चाबियाँ, परंपरा मर्याद.. -स्मरण
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मानो नभ से आ गये, तारे भू पर आज. -भ्रांतिमान
लगे चाँद सा प्रियामुख, दिल पर करता राज.. -उपमा
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दीप-दीप्ति दीपित द्युति, दीपशिखा दो देख. -वृत्यानुप्रास
जला पतंगा जान दी, पर न हुआ कुछ लेख.. -छेकानुप्रास
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दिननाथ ने शुचि साँझ को, फिर प्रीत का उपहार.
दीपक दिया जो झलक रवि की, ले हरे अंधियार.. -श्रुत्यानुप्रास
अन्त्यानुप्रास हर दोहे के समपदांत में स्वयमेव होता है.
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लक्ष्मी को लक्ष्मी मिली, नर-नारायण दूर. -लाटानुप्रास
जो जन ऐसा देखते, आँखें रहते सूर..
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घर-घर में आनंद है, द्वार-द्वार पर हर्ष. -पुनरुक्तिप्रकाश
प्रभु दीवाली ही रहे, वर दो पूरे वर्ष..
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दीप जला ज्योतित हुए, अंतर्मन गृह-द्वार. -श्लेष
चेहरे-चेहरे पर 'सलिल', आया नवल निखार..
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रमा उमा से पूछतीं, भिक्षुक है किस द्वार?
उमा कहें बलि-द्वार पर, पहुंचा रहा गुहार.. -श्लेष वक्रोक्ति
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रमा रमा में मन मगर, रमा न देतीं दर्श.
रमा रमा में मन मगर, रमा न देतीं दर्श? - काकु वक्रोक्ति
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मिले सुनार सुनार से, अलंकार के साथ.
चिंता की रेखाएँ शत, हैं स्वामी के माथ.. -पुनरुक्तवदाभास
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aapke uchchstariya lekhni par tippni karne sahas nahi kar pati ...shabd nahi hai mere pas!!!!!!!!
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया दोहे। दीपावली और बलि प्रतिपदा की शुभकामनायें!
जवाब देंहटाएंझिलमिल दोहों के लिए जगमग बधाई.
जवाब देंहटाएंभैया जी गज़ब कर दिये हो
जवाब देंहटाएंकमाल का लेखन उसपे अनुप्रास का उदाहरण वाह
सच दीपावली सफ़ल सुफ़ल हो गई
अग्रज से आभार कैसे कहूं
गजब की प्रस्तुति .. बहुत बढिया !!
जवाब देंहटाएंबहुत गजब का लेखन है, आभार
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा |
जवाब देंहटाएंवाह ... गागर में सागर मिल गया यहाँ तो ...
जवाब देंहटाएंकदम कदम दोहावली, रचना मर्म बताय |
जवाब देंहटाएंरस अलंकार भाव सब, ऐसो दिया समाय ||
सादर नमन सर....
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