भाई किधर से आ रहे हो
उसने तपाक से ज़वाब दिया - घर जात हौं..!!
घर जाने का उछाह गोया इस मज़दूर की मानिंद सूरज में भी है. तभी तो बादलों के शामियाने पर चढ़ कूंदता फ़ांदता पश्चिम की तरफ़ जा रहा है..
ये कोई शहरी बच्चा नहीं जो स्कूल से सीधा घर जाने में कतराता है.. सूरज है भाई.. उसे समय पर आना मालूम है.. समय पर जाना भी... जानता है..
महानगर का बच्चा नहीं है वो जिसका बचपन असमय ही छिन जाता है .. उसे मां के हाथों की सौंधी सौंधी रोटियां बुला रहीं है.. गुड़ की डली वाह.. मिर्च न भी लगे तो भी गुड़ के लिये झूठ मूट अम्मा मिर्ची बहुत है कह चीखता होगा .. मां मुस्कुरा कर मटके से गुड़ निकाल के दे देती होगी
मेरी तरफ़ पूरा पूरा बचपन जिया जा रहा है.. सूरज.. कभी झाड़ियों के पीछे जा छिपता तो कभी किसी दरख्त के .. छुपनछुपाई का खेल वाह क्या बात है .. पता नहीं मेरी बातों का क्या अर्थ लगाते हैं..
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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!