चंद्रसेन 'विराट', |
(कृति विवरण: बोल मेरी ज़िंदगी, हिंदी गज़ल संग्रह, चंद्रसेन 'विराट', आकर डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, पृष्ठ १८४, मूल्य ३००रु, समान्तर पब्लिकेशन तराना, उज्जैन कृति चर्चा: चर्चाकार: संजीव वर्मा 'सलिल' )
हिंदी गीतिकाव्य की मुक्तिका परंपरा के शिखर हस्ताक्षरों में प्रमुख,
हिंदी की भाषिक शुद्धता के सजग पहरुए, छांदस
काव्य के ध्वजवाहक चंद्रसेन विराट का नया हिंदी गज़ल संग्रह 'बोल मेरी ज़िंदगी' हिंदी ग़ज़ल का उज्जवल रूप
प्रस्तुत करता है. संग्रह का शीर्षक ही ग़ज़लकार के सृजन-प्रवाह की लहरियों के नर्तन
में परिवर्तन का संकेत करता है. पूर्व के ११ हिंदी गज़ल संग्रहों से भिन्न इस
संग्रह में भाषिक शुद्धता के प्रति आग्रह में किंचित कमी और भाषिक औदार्य के साथ
उर्दू के शब्दों के प्रति पूर्वपेक्षा अधिक सहृदयता परिलक्षित होती है. सम्भवतः
सतत परिवर्तित होते परिवेश, नयी पीढ़ी की भाषिक संवेदनाएँ
और आवश्यकताएँ तथा समीक्षकीय मतों ने विराट जी को अधिक भाषिक औदार्य की ओर उन्मुख
किया है.
गीतिका, उदयिका, प्रारम्भिका, अंतिका, पदांत, तुकांत जैसी सारगर्भित शब्दावली के प्रति आग्रही रही कलम का यह परिवर्तन नये पाठक को भले ही अनुभव न हो किन्तु विराट जी के सम्पूर्ण साहित्य से लगातार परिचित होते रहे पाठक की दृष्टि से नहीं चूकता। पूर्व संग्रहों निर्वासन चाँदनी में रूप-सौंदर्य, आस्था के अमलतास में विषयगत व्यापकता, कचनार की टहनी में अलंकारिक प्रणयाभिव्यक्ति, धार के विपरीत में वैषम्य विरोध, परिवर्तन की आहट में सामयिक चेतना, लड़ाई लम्बी है में मानसिक परिष्कार का आव्हान, न्याय कर मेरे समय में व्यंग्यात्मकता, इस सदी का आदमी में आधुनिकताजन्य विसंगतियों पर चिंता, हमने कठिन समय देखा है में विद्रूपताओं की श्लेषात्मक अभिव्यञ्जना, खुले तीसरी आँख में उज्जवल भविष्य के प्रति आस्था के स्वरों के बाद 'बोल मेरी ज़िंदगी' में आम आदमी की सामर्थ्य पर विश्वास की अभिव्यक्ति का स्वर मुखर हुआ है. विराट जी का प्रबुद्ध और परिपक्व गज़लकार सांस्कारिक प्रतिबद्धता, वैश्विक चेतना, मानवीय गरिमा, राष्ट्रीय सामाजिकता और स्थानीय आक्रोश को तटस्थ दृष्टि से देख-परख कर सत्य की प्रतीति करता-कराता है.
विश्व भाषा हिंदी के समृद्धतम छंद भंडार की सुरभि, संस्कार, परंपरा, लोक ग्राह्यता और शालीनता के मानकों के अनुरूप रचित श्रेष्ठ रचनाओं को प्रयासपूर्वक खारिज़ करने की पूर्वाग्रहग्रसित आलोचकीय मनोवृत्ति की अनदेखी कर बह्र-पिंगल के छन्दानुशासन को समान महत्त्व देते हुए अंगीकार कर कथ्य को लोकग्राह्य और प्रभावी बनाकर प्रस्तुत कर विराट जी ने अपनी बात अपने ही अंदाज़ में कही है;
'कैसी हो ये सवाल ज़रा बाद में हल हो
पहली यह शर्त है कि गज़ल है तो गज़ल हो
भाषा में लक्षणा हो कि संकेत भरे हों
हो गूढ़ अर्थवान मगर फिर भी सरल हो'
अरबी-फ़ारसी के अप्रचलित और अनावश्यक शब्दों का प्रयोग किये बिना छोटी, मझोली और बड़ी बहरों की ग़ज़लों में शिद्दत और संजीदगी के साथ समर्पण का अद्भुत मिश्रण हुआ है इस संग्रह में. विराट जी आलोचकीय दृष्टि की परवाह न कर अपने मानक आप बनाते हैं-
तृप्त हो जाए सुधीजन यह बहुत / फिर समीक्षक से विवेचन हो न हो
जी सकूँ मैं गीत को कृतकृत्य हो / अब निरंतर गीत लेखन हो न हो
ग़ालिब ने अपने अंदाज़े बयां को 'और' अर्थात अनूठा बताया था, विराट जी की 'कहन' अपनी मिसाल आप है :
देह की दूज तो मन गयी / प्रेम की पंचमी रह गयी
मूढ़ है मौज में आज भी / और ज्ञानी परेशान है
मादा सिर्फ न माँ भी तू / नत होकर औरत से कह
लूँ न जमीं के बदले में / यह जुमला जन्नत से कह
आते कल के महामहिम बच्चे / उनको उठकर गुलाब दो पहले
गुम्बद का जो मखौल उड़ाती रही सदा / मीनार जलजले में वो अबके ढही तो है
विराट जी मूलतः गीतकार हैं. उनका गीतकार मुक्तिकाकार का विरोधी नहीं पूरक है. वे गज़ल में भी गीत की दुहाई न सिर्फ देते है बल्कि पूरी दमदारी से देते हैं: गीत की सर्जना / ज्यों प्रसव-वेदना
जी सकूँ मैं गीत को कृतकृत्य हो / अब निरंतर गीत लेखन हो न हो
क्षमा हरगिज़ न माँगूँगा / ये गर्दन गंग कवि की है
मैं कवि ब्रम्ह रचना में रत हूँ हे देवों!
उनका दावा था रचना मौलिक है / वह मेरे गीत की नकल निकली
तू रख मेरे गीत नकद / यश की आय मुझे दे दे
मुक्त कविता के घर में गीतों का / छोड़कर क्यों शिविर गया कोई?
हम भावों को गीत बनाने / शब्दों छंदों लय तक पहुँचे
ह्रदय तो गीत से भरता / उदर भरता न पर जिस
गीतिका, उदयिका, प्रारम्भिका, अंतिका, पदांत, तुकांत जैसी सारगर्भित शब्दावली के प्रति आग्रही रही कलम का यह परिवर्तन नये पाठक को भले ही अनुभव न हो किन्तु विराट जी के सम्पूर्ण साहित्य से लगातार परिचित होते रहे पाठक की दृष्टि से नहीं चूकता। पूर्व संग्रहों निर्वासन चाँदनी में रूप-सौंदर्य, आस्था के अमलतास में विषयगत व्यापकता, कचनार की टहनी में अलंकारिक प्रणयाभिव्यक्ति, धार के विपरीत में वैषम्य विरोध, परिवर्तन की आहट में सामयिक चेतना, लड़ाई लम्बी है में मानसिक परिष्कार का आव्हान, न्याय कर मेरे समय में व्यंग्यात्मकता, इस सदी का आदमी में आधुनिकताजन्य विसंगतियों पर चिंता, हमने कठिन समय देखा है में विद्रूपताओं की श्लेषात्मक अभिव्यञ्जना, खुले तीसरी आँख में उज्जवल भविष्य के प्रति आस्था के स्वरों के बाद 'बोल मेरी ज़िंदगी' में आम आदमी की सामर्थ्य पर विश्वास की अभिव्यक्ति का स्वर मुखर हुआ है. विराट जी का प्रबुद्ध और परिपक्व गज़लकार सांस्कारिक प्रतिबद्धता, वैश्विक चेतना, मानवीय गरिमा, राष्ट्रीय सामाजिकता और स्थानीय आक्रोश को तटस्थ दृष्टि से देख-परख कर सत्य की प्रतीति करता-कराता है.
विश्व भाषा हिंदी के समृद्धतम छंद भंडार की सुरभि, संस्कार, परंपरा, लोक ग्राह्यता और शालीनता के मानकों के अनुरूप रचित श्रेष्ठ रचनाओं को प्रयासपूर्वक खारिज़ करने की पूर्वाग्रहग्रसित आलोचकीय मनोवृत्ति की अनदेखी कर बह्र-पिंगल के छन्दानुशासन को समान महत्त्व देते हुए अंगीकार कर कथ्य को लोकग्राह्य और प्रभावी बनाकर प्रस्तुत कर विराट जी ने अपनी बात अपने ही अंदाज़ में कही है;
'कैसी हो ये सवाल ज़रा बाद में हल हो
पहली यह शर्त है कि गज़ल है तो गज़ल हो
भाषा में लक्षणा हो कि संकेत भरे हों
हो गूढ़ अर्थवान मगर फिर भी सरल हो'
अरबी-फ़ारसी के अप्रचलित और अनावश्यक शब्दों का प्रयोग किये बिना छोटी, मझोली और बड़ी बहरों की ग़ज़लों में शिद्दत और संजीदगी के साथ समर्पण का अद्भुत मिश्रण हुआ है इस संग्रह में. विराट जी आलोचकीय दृष्टि की परवाह न कर अपने मानक आप बनाते हैं-
तृप्त हो जाए सुधीजन यह बहुत / फिर समीक्षक से विवेचन हो न हो
जी सकूँ मैं गीत को कृतकृत्य हो / अब निरंतर गीत लेखन हो न हो
ग़ालिब ने अपने अंदाज़े बयां को 'और' अर्थात अनूठा बताया था, विराट जी की 'कहन' अपनी मिसाल आप है :
देह की दूज तो मन गयी / प्रेम की पंचमी रह गयी
मूढ़ है मौज में आज भी / और ज्ञानी परेशान है
मादा सिर्फ न माँ भी तू / नत होकर औरत से कह
लूँ न जमीं के बदले में / यह जुमला जन्नत से कह
आते कल के महामहिम बच्चे / उनको उठकर गुलाब दो पहले
गुम्बद का जो मखौल उड़ाती रही सदा / मीनार जलजले में वो अबके ढही तो है
विराट जी मूलतः गीतकार हैं. उनका गीतकार मुक्तिकाकार का विरोधी नहीं पूरक है. वे गज़ल में भी गीत की दुहाई न सिर्फ देते है बल्कि पूरी दमदारी से देते हैं: गीत की सर्जना / ज्यों प्रसव-वेदना
जी सकूँ मैं गीत को कृतकृत्य हो / अब निरंतर गीत लेखन हो न हो
क्षमा हरगिज़ न माँगूँगा / ये गर्दन गंग कवि की है
मैं कवि ब्रम्ह रचना में रत हूँ हे देवों!
उनका दावा था रचना मौलिक है / वह मेरे गीत की नकल निकली
तू रख मेरे गीत नकद / यश की आय मुझे दे दे
मुक्त कविता के घर में गीतों का / छोड़कर क्यों शिविर गया कोई?
हम भावों को गीत बनाने / शब्दों छंदों लय तक पहुँचे
ह्रदय तो गीत से भरता / उदर भरता न पर जिस
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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!