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"धर्म की परिभाषा को आधिकारिक रूप से समझने की ज़रूरत"
गिरीश बिल्लोरे मुकुल girishbillore@gmail.com
भारत को धार्मिक होना चाहिए या आध्यात्मिक..? यह सवाल बहुत लोग करते हैं !
इन समस्त सवालों से पहले धर्म शब्द की परिभाषा तय होनी चाहिए । डिक्शनरी में तो सम्प्रदाय को धर्म कहा जाता है ।
परंतु एक तथ्य यह भी है कि भारत में मौजूद व्यापक विश्लेषण के साथ साथ धर्म की परिभाषा को उसके स्वरूप के माध्यम से समझने के बावजूद ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में उसे रिलीजन ही लिखा है ! धर्म की परिभाषा महर्षि गौतम ने दी है.. जो धारण करने योग्य हो वह धर्म है !
क्या इस परिभाषा को समग्र रूप से स्वीकृति नहीं मिलनी चाहिए? अवश्य मिलनी चाहिए क्योंकि यह परिभाषा सुनिश्चित करने के लिए सुव्यवस्थित तथा स्थापित सत्य एवं तथ्य है।
मूल रूप से धर्म की परिभाषा का और अधिक गहराई से अध्ययन कर विश्लेषण किया जाए तो ज्ञात होता है कि
[ ] भौतिक रूप से प्राप्त शरीर और उसको संचालित करने वाली ऊर्जा जिसे प्राण कहा जा सकता है के द्वारा...
[ ] धारण करने योग्य को ही धारण किया जाता है। उदाहरणार्थ नित्य प्रातः उठना प्राणी का भौतिक धर्म है, परंतु यह ऐसी प्रक्रिया है जो शरीर के सोने और जागने की अवधि को सुनिश्चित करती है। जागते ही शरीर के अंदर जीवंत भाव धरती से उस पर अपने पैर रखने के लिए अनुमति चाहते हैं तथा उसे प्रणाम करते हैं । शरीर को भौतिक रूप से एक धर्म का निर्वहन करना है वह धर्म है दैनंदिन कर्म रहना।
[ ] पिता,माता, गुरु, भाई, बहन , पत्नी, अधिकारी, सिपाही, सेवक, आदि के रूप में जो धारण करने योग्य हो को धर्म कहा जाना मेरा नैरेटिव है ।
[ ] और सनातन प्रक्रिया है सामान्य रूप से जब हम में वाणी समझ भाव का विकास नहीं हुआ था तब भी हम शरीर को सुलाते थे और जगाते भी रहे होंगे...! फिर हम जागृत अवस्था में आहार के लिए भटकते भी होंगे आहार हासिल करने के लिए शरीर कुछ कार्य अवश्य करता होगा। यहां आहार की उम्मीद करना कामना है और आहार के लिए श्रम करना पुरुषार्थ है। यह व्यवस्था ही रही थी, जब हमारा धर्म कामना और अर्जन पर केंद्रित रहा ।
[ ] आदि काल से अब तक यानी सनातन जारी यह व्यवस्था शनै: शनै: विकास के बावजूद हमारी व्यवस्था और हमारे डीएनए में मौजूद है। हम रात को सोना नहीं भूलते और सुबह जागना नहीं भूलते विशेष परिस्थितियों को छोड़कर शरीर अपना धर्म निभाता है । फिर धीरे-धीरे विकास के साथ शारीरिक संरचना में सूक्ष्म शरीर का एहसास मनुष्य ने किया अर्थात मनुष्य सोचने लगा और फिर उसी सोच के आधार नियमों को धारित या उन से विरत रहने लगा । सनातन यानी प्रारंभ से ही तय हो गया कि क्या धारित करना है और किसे धारित नहीं है।
धारित करने और ना करने का मूलभूत कारण जीवन क्रम को सुव्यवस्थित स्थापित करना था।
स्वयं धर्म यानी जीवन की व्यवस्था को चलाने के लिए क्या धारण करना है क्या धारण नहीं करना है के बारे में आत्म विमर्श या अगर वह समूह में रहने लगा होगा तो सामूहिक विमर्श अवश्य किया होगा। मनुष्य ने तब ही तय कर लिया होगा कि क्या खाना है क्या नहीं खाना है कैसे रहना है स्वयं की अथवा अपने समूह की रक्षा किस प्रविधि से करना है समूह में आपसी व्यवहार कैसे करना है ?
एक लंबी मंत्रणा के बाद तय किया होगा। धर्म का प्रारंभ यहीं से होता है।
आप एक कुत्ता पालते हैं अथवा अन्य कोई पशु पालते हैं आपका उनके लालन-पालन का उद्देश्य सर्वथा धर्म सम्मत होता है। अगर उस पालतू पशु को आप घर में छोड़कर जाते हैं तो आप चिंतित रहते हैं कि उसे भोजन कराना है अब आप उस पशु के लिए कमिटेड हैं और आप निश्चित समय सीमा में लौटते हैं ऐसी व्यवस्था करते हैं कि आपके पालतू पशु को समय पर भोजन मिल जाए । और आप इसके लिए प्रतिबद्ध है स्वामी के रूप में यही आपका धर्म है। जब आप पशु के लिए इतना कमिटेड है तो आप अपनी पत्नी और संतानों के लिए भी कमिटेड होंगे ही पति के रुप में आपका यह कमिटमेंट आपका धर्म है।
अपने कमिटमेंटस को पूरा करने के लिए आपके यत्न प्रयत्न अर्थ का उपार्जन अब करने लगे हैं पहले हम-आप जब आदिमानव थे तब आप क्या करते रहे होंगे ?
तभी आप अगर ऐसी व्यवस्था में रह रहे होंगे तो भी अपने धर्म का निर्वाह जरूर कर रहे थे। क्योंकि तब आपका धर्म था जन की संख्या में वृद्धि करना। उसके लिए आपके पुरुषार्थ का द्वितीय तत्व काम यानी कामना यानी उम्मीद जो आवश्यकता अनुसार जुटानी होती थीं पर अपना श्रम और सामर्थ्य लगाते थे।
ईश्वर अथवा ब्रह्म की कल्पना ईश उपनिषद में कुछ इस तरह से की है
"पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् , पूर्ण मुदच्यते, ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्ण मेवा वशिष्यते।।
!!ॐ शांति: शांति: शांतिः !!
ब्रह्म जो अदृश्य है, वह अनंत और पूर्ण है। उसी पूर्ण यानी ब्रह्म से पूर्ण जगत की उत्पत्ति होती है। यह दृश्यमान जगत भी अनंत है। उस अनंत से विश्व विस्तारित हुआ है। और यही विस्तार अनंत के होने का प्रमाण है।
अलौकिक ब्रह्म की कल्पना यानी निर्गुण ब्रह्म की कल्पना से सगुण ब्रह्म की कल्पना सनातन इसलिए करता है ताकि उस क्रिया का अभ्यास किया जा सके जिसे साधना अथवा अनुष्ठान और सीधे शब्द में कहीं तो योग कहते हैं।
योग ध्यान सगुण ब्रह्म से निर्गुण ब्रह्म तक पहुंचने का सरपट मार्ग है। यह किसी परम ब्रह्म परमात्मा का आदेश नहीं है क्योंकि ब्रह्म में निहित तत्व ऊर्जा के अतिरिक्त कुछ नहीं है। ब्रह्म निरंकार है। अनंत है इस अनंत में ऊर्जा का अकूत भंडार है।
निर्गुण ब्रह्म की पूजा बहुत सारे लोग करते हैं और यह दावा करते हैं कि वे ब्रह्म के संदेशवाहक हैं । वास्तव में यह एक भौतिक क्रिया है ब्रह्म को एक ओर स्वयं आकार हीन मानना जाता है वही लोग यह कहते हैं कि ईश्वर ने मुझे यह कहने के लिए जमीन पर भेजा है कि दुनिया के नीति नियमों का संचालन करने के लिए नियमों का निर्धारण करो । वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है अगर यह सत्य है तो आप और हम रोज ब्रह्म से साक्षात्कार करते हैं हजारों हजार विचार मस्तिष्क में संचालित होते हैं तो क्या हम स्वयं को ईश्वर का संदेशवाहक मान लें. !
अब हमें यहां यह समझ विकसित करनी होगी कि धर्म शब्द का अर्थ उसके अंतर्निहित तथ्यों से ही होता है न कि उसका कोई समानार्थी शब्द के रूप में स्वीकृत किया जाए । दुनिया भर के शब्दकोषों में धर्म को धर्म Dharm ही लिखा जाना चाहिए।
रिलीजन क्या है
रिलीजन का अर्थ होता है- मत मतों का निर्माण किया जा सकता है । यह एक तरह से डॉक्ट्रिन या प्रवृत्ति सिद्धांत पर आधारित आज्ञाओं का समुच्चय होता है। जो स्वानुभूत तथ्यों पर आधारित है ।
परिवार संचालन की व्यवस्था, आचार संहिताएं, गुरु के आदेश मठ मंदिर अथवा पानी उपासना गृह द्वारा जारी विद्वानों के मार्गदर्शी सिद्धांत जो देश काल परिस्थिति के अनुकूल जारी किए जाते हैं के आधार पर जीवनचर्या का निर्वाह करने की प्रक्रिया को रिलीज़न यानि पंथ मत कहा जा सकता है । धर्म तो कदापि नहीं । धर्म केवल धर्म है । आक्सफोर्ड को ध्यान देना ही होगा ।
गिरीश बिल्लोरे मुकुल
गिरीश बिल्लोरे मुकुल girishbillore@gmail.com
भारत को धार्मिक होना चाहिए या आध्यात्मिक..? यह सवाल बहुत लोग करते हैं !
इन समस्त सवालों से पहले धर्म शब्द की परिभाषा तय होनी चाहिए । डिक्शनरी में तो सम्प्रदाय को धर्म कहा जाता है ।
परंतु एक तथ्य यह भी है कि भारत में मौजूद व्यापक विश्लेषण के साथ साथ धर्म की परिभाषा को उसके स्वरूप के माध्यम से समझने के बावजूद ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में उसे रिलीजन ही लिखा है ! धर्म की परिभाषा महर्षि गौतम ने दी है.. जो धारण करने योग्य हो वह धर्म है !
क्या इस परिभाषा को समग्र रूप से स्वीकृति नहीं मिलनी चाहिए? अवश्य मिलनी चाहिए क्योंकि यह परिभाषा सुनिश्चित करने के लिए सुव्यवस्थित तथा स्थापित सत्य एवं तथ्य है।
मूल रूप से धर्म की परिभाषा का और अधिक गहराई से अध्ययन कर विश्लेषण किया जाए तो ज्ञात होता है कि
[ ] भौतिक रूप से प्राप्त शरीर और उसको संचालित करने वाली ऊर्जा जिसे प्राण कहा जा सकता है के द्वारा...
[ ] धारण करने योग्य को ही धारण किया जाता है। उदाहरणार्थ नित्य प्रातः उठना प्राणी का भौतिक धर्म है, परंतु यह ऐसी प्रक्रिया है जो शरीर के सोने और जागने की अवधि को सुनिश्चित करती है। जागते ही शरीर के अंदर जीवंत भाव धरती से उस पर अपने पैर रखने के लिए अनुमति चाहते हैं तथा उसे प्रणाम करते हैं । शरीर को भौतिक रूप से एक धर्म का निर्वहन करना है वह धर्म है दैनंदिन कर्म रहना।
[ ] पिता,माता, गुरु, भाई, बहन , पत्नी, अधिकारी, सिपाही, सेवक, आदि के रूप में जो धारण करने योग्य हो को धर्म कहा जाना मेरा नैरेटिव है ।
[ ] और सनातन प्रक्रिया है सामान्य रूप से जब हम में वाणी समझ भाव का विकास नहीं हुआ था तब भी हम शरीर को सुलाते थे और जगाते भी रहे होंगे...! फिर हम जागृत अवस्था में आहार के लिए भटकते भी होंगे आहार हासिल करने के लिए शरीर कुछ कार्य अवश्य करता होगा। यहां आहार की उम्मीद करना कामना है और आहार के लिए श्रम करना पुरुषार्थ है। यह व्यवस्था ही रही थी, जब हमारा धर्म कामना और अर्जन पर केंद्रित रहा ।
[ ] आदि काल से अब तक यानी सनातन जारी यह व्यवस्था शनै: शनै: विकास के बावजूद हमारी व्यवस्था और हमारे डीएनए में मौजूद है। हम रात को सोना नहीं भूलते और सुबह जागना नहीं भूलते विशेष परिस्थितियों को छोड़कर शरीर अपना धर्म निभाता है । फिर धीरे-धीरे विकास के साथ शारीरिक संरचना में सूक्ष्म शरीर का एहसास मनुष्य ने किया अर्थात मनुष्य सोचने लगा और फिर उसी सोच के आधार नियमों को धारित या उन से विरत रहने लगा । सनातन यानी प्रारंभ से ही तय हो गया कि क्या धारित करना है और किसे धारित नहीं है।
धारित करने और ना करने का मूलभूत कारण जीवन क्रम को सुव्यवस्थित स्थापित करना था।
स्वयं धर्म यानी जीवन की व्यवस्था को चलाने के लिए क्या धारण करना है क्या धारण नहीं करना है के बारे में आत्म विमर्श या अगर वह समूह में रहने लगा होगा तो सामूहिक विमर्श अवश्य किया होगा। मनुष्य ने तब ही तय कर लिया होगा कि क्या खाना है क्या नहीं खाना है कैसे रहना है स्वयं की अथवा अपने समूह की रक्षा किस प्रविधि से करना है समूह में आपसी व्यवहार कैसे करना है ?
एक लंबी मंत्रणा के बाद तय किया होगा। धर्म का प्रारंभ यहीं से होता है।
आप एक कुत्ता पालते हैं अथवा अन्य कोई पशु पालते हैं आपका उनके लालन-पालन का उद्देश्य सर्वथा धर्म सम्मत होता है। अगर उस पालतू पशु को आप घर में छोड़कर जाते हैं तो आप चिंतित रहते हैं कि उसे भोजन कराना है अब आप उस पशु के लिए कमिटेड हैं और आप निश्चित समय सीमा में लौटते हैं ऐसी व्यवस्था करते हैं कि आपके पालतू पशु को समय पर भोजन मिल जाए । और आप इसके लिए प्रतिबद्ध है स्वामी के रूप में यही आपका धर्म है। जब आप पशु के लिए इतना कमिटेड है तो आप अपनी पत्नी और संतानों के लिए भी कमिटेड होंगे ही पति के रुप में आपका यह कमिटमेंट आपका धर्म है।
अपने कमिटमेंटस को पूरा करने के लिए आपके यत्न प्रयत्न अर्थ का उपार्जन अब करने लगे हैं पहले हम-आप जब आदिमानव थे तब आप क्या करते रहे होंगे ?
तभी आप अगर ऐसी व्यवस्था में रह रहे होंगे तो भी अपने धर्म का निर्वाह जरूर कर रहे थे। क्योंकि तब आपका धर्म था जन की संख्या में वृद्धि करना। उसके लिए आपके पुरुषार्थ का द्वितीय तत्व काम यानी कामना यानी उम्मीद जो आवश्यकता अनुसार जुटानी होती थीं पर अपना श्रम और सामर्थ्य लगाते थे।
ईश्वर अथवा ब्रह्म की कल्पना ईश उपनिषद में कुछ इस तरह से की है
"पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् , पूर्ण मुदच्यते, ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्ण मेवा वशिष्यते।।
!!ॐ शांति: शांति: शांतिः !!
ब्रह्म जो अदृश्य है, वह अनंत और पूर्ण है। उसी पूर्ण यानी ब्रह्म से पूर्ण जगत की उत्पत्ति होती है। यह दृश्यमान जगत भी अनंत है। उस अनंत से विश्व विस्तारित हुआ है। और यही विस्तार अनंत के होने का प्रमाण है।
अलौकिक ब्रह्म की कल्पना यानी निर्गुण ब्रह्म की कल्पना से सगुण ब्रह्म की कल्पना सनातन इसलिए करता है ताकि उस क्रिया का अभ्यास किया जा सके जिसे साधना अथवा अनुष्ठान और सीधे शब्द में कहीं तो योग कहते हैं।
योग ध्यान सगुण ब्रह्म से निर्गुण ब्रह्म तक पहुंचने का सरपट मार्ग है। यह किसी परम ब्रह्म परमात्मा का आदेश नहीं है क्योंकि ब्रह्म में निहित तत्व ऊर्जा के अतिरिक्त कुछ नहीं है। ब्रह्म निरंकार है। अनंत है इस अनंत में ऊर्जा का अकूत भंडार है।
निर्गुण ब्रह्म की पूजा बहुत सारे लोग करते हैं और यह दावा करते हैं कि वे ब्रह्म के संदेशवाहक हैं । वास्तव में यह एक भौतिक क्रिया है ब्रह्म को एक ओर स्वयं आकार हीन मानना जाता है वही लोग यह कहते हैं कि ईश्वर ने मुझे यह कहने के लिए जमीन पर भेजा है कि दुनिया के नीति नियमों का संचालन करने के लिए नियमों का निर्धारण करो । वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है अगर यह सत्य है तो आप और हम रोज ब्रह्म से साक्षात्कार करते हैं हजारों हजार विचार मस्तिष्क में संचालित होते हैं तो क्या हम स्वयं को ईश्वर का संदेशवाहक मान लें. !
अब हमें यहां यह समझ विकसित करनी होगी कि धर्म शब्द का अर्थ उसके अंतर्निहित तथ्यों से ही होता है न कि उसका कोई समानार्थी शब्द के रूप में स्वीकृत किया जाए । दुनिया भर के शब्दकोषों में धर्म को धर्म Dharm ही लिखा जाना चाहिए।
रिलीजन क्या है
रिलीजन का अर्थ होता है- मत मतों का निर्माण किया जा सकता है । यह एक तरह से डॉक्ट्रिन या प्रवृत्ति सिद्धांत पर आधारित आज्ञाओं का समुच्चय होता है। जो स्वानुभूत तथ्यों पर आधारित है ।
परिवार संचालन की व्यवस्था, आचार संहिताएं, गुरु के आदेश मठ मंदिर अथवा पानी उपासना गृह द्वारा जारी विद्वानों के मार्गदर्शी सिद्धांत जो देश काल परिस्थिति के अनुकूल जारी किए जाते हैं के आधार पर जीवनचर्या का निर्वाह करने की प्रक्रिया को रिलीज़न यानि पंथ मत कहा जा सकता है । धर्म तो कदापि नहीं । धर्म केवल धर्म है । आक्सफोर्ड को ध्यान देना ही होगा ।
गिरीश बिल्लोरे मुकुल
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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!