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23 मार्च 2021

इतिहास लेखन में गंभीरता होनी चाहिए..!


 स्वर्गीय डॉक्टर महेश चंद्र चौबे एवम जबलपुर में  पूर्व कलेक्टर एवम कमिश्नर रहे अपना दफ्तर अपना घर कार्यक्रम के प्रणेता श्री एम एम  उपाध्याय जी द्वारा प्रस्तुत कृति में जबलपुर नगर को हूणों से सम्बंधित बताया है । जो समझ से एकदम पर है । 
इतिहास कहता है कि  हूण अपने मूल स्थान से प्रस्थान करने के उपरांत दो शाखों में बंट गए थे 
"पूर्वी शाखा के हूण आगे बढ़ते हुये आक्सस नदी-घाटी में बस गये। 
इसी शाखा ने भारत पर अनेक आक्रमण किये।
डॉ स्व एम सी चौबे अपनी ही पुस्तक के पृष्ठ क्रमांक 28 में  मैं लेखक स्वयं से काटते हैं कि-" *त्रिपुरी क्षेत्र में बहुत सारे ऐसे टीले मिले हैं जहां पर शक सातवाहन बोधि, सेन आदि राजवंशों के सिक्के प्राप्त होते हैं। यह सही भी है मैंने स्वयं कई तेवर वासियों के मुंह से यह सुना है तथा हजारों साल पुराने  सिक्के एवं गेहूं के दानों की उस क्षेत्र से प्राप्ति की  पुष्टि होती है । परंतु हूण आक्रांताओं के बारे में अब तक मुझे कोई जानकारी आधिकारिक रूप से प्राप्त नहीं हुई है।
   हूणों  की एक अन्य शाखा थी किसने मध्य एशिया से रोम पर आक्रमण किया था जिसे पश्चिमी शाखा के नाम से जाना जाता है .
     पूर्वी शाखा के हूणों का प्रथम आक्रमण स्कंदगुप्त के समय में अर्थात पांचवीं शताब्दी में हुआ था । 
 महाकवि कालिदास के किसी भी ग्रंथ में इन चीनी डाकुओं से किसी भी राजवंश के युद्ध का कोई विवरण नहीं मिलता
           इस आक्रमण का नेता खुशनेवाज था, जिसने ईरान के ससानी शासकों को दबाने के बाद भारत पर आक्रमण किया। यह युद्ध बङा भयंकर था। उसकी भयंकरता का संकेत भितरी स्तंभलेख में हुआ है, जिसके अनुसार हूणों के साथ युद्ध क्षेत्र में उतरने पर उसकी भुजाओं के प्रताप से पृथ्वी काँप गयी तथा भीषण बवंडर उठ खङा हुआ। 
स्कंदगुप्त विक्रमादित्य  गुप्त राजवंश के शासक थे। गुप्त राजवंश का शासनकाल तीसरी से पांचवी शताब्दी तक चला ।
स्कंद गुप्त किस वंश  आठवें शासक रहे हैं  जिनका युद्ध हूणों से हुआ ।
      इस युद्ध में स्कंदगुप्त ने हूणों को बुरी तरह से परास्त किया तथा भारत से बाहर खदेङ दिया। इस युद्ध का प्रमाण स्कंदगुप्त के जूनागढ अभिलेख से मिलता है, जिसमें हूणों को म्लेच्छ कहा गया है। म्लेच्छ  देश से तात्पर्य गंधार से है, जहाँ पराजित होने के बाद हूण नरेश ने शरण ली थी।"
    स्पष्ट है कि जबलपुर से हूणों का दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं था । फिर भी इस कृति में अवांछित कारणों से लिखा है कि-" कलचुरी नरेश गांगेयदेव के पुत्र महा पराक्रमी कर्ण ने राजकुमारी अवल्लादेवी से विवाह किया था।" लेखक  यह भी कहते हैं कि कलचुरी शब्द का रिश्ता तुर्की भाषा के शब्द कलचुर से है जिसका अर्थ होता है-" विशिष्ट रूप से सम्मानित व्यक्ति" .
    यह पुस्तक यह भी दावा करती है कि हूण जबलपुर में बस गए थे। इसके न तो कोई जेनेटिक प्रमाण है और न ही सिक्के, शिलालेख, वर्तमान जबलपुर में मौजूद हैं 
  नर्मदा और गोदावरी नदियों के बीच स्थित इस प्रदेश की राजधानी पोतन थी। इस राज्य के राजा इक्ष्वाकु वंश के थे।
  इसका अवन्ति के साथ निरंतर संघर्ष चलता रहता था। धीरे-धीरे यह राज्य अवन्ति के अधीन हो गया।
      कुल मिलाकर यह कहना कि जबलपुर का संबंध जाबालि ऋषि से नहीं है..! 
डॉक्टर स्वर्गीय महेश चौबे की जानकारी मेरे लिए असहमति योग्य है.
    नर्मदा तट पर ऋषि परंपराओं का तथा ऋषियों की तपोभूमि का होना  कई पौराणिक दस्तावेजों में मौजूद है। 
  इंटेक जबलपुर द्वारा प्रस्तुत किया दस्तावेज पूर्णतया साबित करने में असमर्थ है कि हूण जबलपुर में बस गए थे।
महाभारत काल एवं उत्तर महाभारत काल में 16 महाजनपदों में शामिल था जबलपुर 
   जी हाँ, महाभारत काल में तो  शिशुपाल चेदि वंश से सम्बद्ध था । ईसा के पूर्व  तक चेदि वंश का शासन त्रिपुरी पर अवश्य था ।
 हूण मध्य एशिया की बर्बर जाति थी। जो चेदि साम्राज्य नर्मदा-गोदावरी तक पहुंच ही न सके  । 
  5 वीं शताब्दी में उन्होंने भारत पर आक्रमण किया किंतु वे भारत के आंतरिक हिस्सों तक नहीं पहुंच सके। यहां एक रिफरेंस और महत्वपूर्ण है कि छठवीं शताब्दी में चीनी यात्री व्हेनसांग भारत आए थे यह गलत तथ्य है चीनी यात्री ह्वेनसांग सातवीं शताब्दी में भारत आए थे। 
 जिस की यात्रा महाकौशल प्रांत  अर्थात जबलपुर के रास्ते होने के कोई प्रमाण न तो उनकी किताब में नहीं है  इंटेक जबलपुर चैप्टर से अनुरोध है कि किसी भी कृति के प्रकाशित होने से पूर्व ऐतिहासिक दस्तावेजों उनकी वैज्ञानिक परीक्षा के उपरांत पर्याप्त प्रमाणिकता के साथ पुस्तकों का मुद्रण कराया जाए। जहां तक पूज्य स्वर्गीय राय बहादुर हीरालाल राय का प्रश्न है वे पूरी तरह संतुष्ट थे कि जो उन्होंने अपनी किताब The Tribes and costes  of the central provinces of India  जो तत्कालीन ब्रिटिश इंडिया के डिप्टी कमिश्नर आर व्ही रसल के साथ लिखी है, में सब कुछ स प्रमाण लिखा है। चार भागों में लिखी गई है कृति पढ़ने योग्य अवश्य है। इस विषय पर जानकारों से ही विमर्श करते रहने का सादर आह्वान है।  इस दिशा में और गहन अध्ययन करेंगे ऐसा मुझे विश्वास है। मुझे यह भी विश्वास है कि जबलपुर तथ्यात्मक इतिहास लेखन की प्रक्रिया फिर से की जा सकती है।

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आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
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दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
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