23 जन॰ 2022

1939 का जबलपुर एवं नेताजी सुभाष चन्द्र बोस : डा आनंद राणा इतिहासकार

1944 में अगर भारत आज़ाद मान लिया जाता तो देश की दशा कुछ और ही होती ऐसा सबका मानना है । उनको भारत की  स्वतन्त्रता भीख में नहीं साधिकार चाहिए थी । एक सच्चे राष्ट्रभक्त ने जगाई थी राष्ट्र प्रेम की वो ज्योति जो हरेक भारतीय के मानस पर आज भी दैदीप्यमान है । आइये जानते हैं उनका का रिश्ता था शहर जबलपुर से जानते हैं इतिहास वेत्ता श्री आनंद राणा के शब्दों में । पेंसिल स्कैच के लिए डा अर्चना शर्मा का आभार   
                     भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक महा महारथी सुभाष चंद्र बोस को सन्
1939 में जबलपुर के पवित्र तीर्थ त्रिपुरी में भारत का शीर्ष नेतृत्व मिला था। भारत देश के युवा और प्रौढ़ प्रतिनिधियों ने गाँधी जी के नेतृत्व को नकार दिया था। जबलपुर में नेताजी सुभाष चंद्र बोस का 4 बार शुभ आगमन हुआ और यहीं त्रिपुरी अधिवेशन से नेताजी सुभाष चंद्र बोस की स्व के लिए विजय और उसकी प्राप्ति का शुभारंभ हुआ था।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस का प्रथम बार 22 दिसंबर 1931 से 16 जुलाई 1932 तक (जबलपुर सेंट्रल जेल में प्रथम प्रवास लगभग 6 माह 25 दिन) , द्वितीय बार 18 फरवरी 1933 से 22 फरवरी 1933 तक (जबलपुर सेंट्रल जेल में द्वितीय प्रवास 4 दिन का प्रवास) , तृतीय बार 5 मार्च 1923 से 11 मार्च 1939 (त्रिपुरी अधिवेशन में जबलपुर में 7 दिन का प्रवास) एवं चतुर्थ बार 4 जुलाई 1939 को अपने अंतिम प्रवास पर आए थे।

सच तो ये था कि, महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन की असफलता से लोग विशेषकर युवा विचलित गए थे और वह अब सुभाष बाबू के साथ जाना चाहते थे, इसलिए सन् 1938 में हरिपुरा कांग्रेस में सुभाष चंद्र बोस विजयी रहे।

सन् 1939 में कांग्रेस में अध्यक्ष पद के चुनाव को लेकर गहरे संकट के बादल घुमड़ने लगे थे। महात्मा गांधी नहीं चाहते थे कि अब सुभाष चंद्र बोस अध्यक्ष पद के लिए खड़े हों, इसलिए उन्होंने कांग्रेस के सभी शीर्षस्थ नेताओं को नेताजी सुभाष चंद्र बोस के विरुद्ध चुनाव में खड़े होने के लिए कहा परंतु सुभाष चंद्र बोस के विरुद्ध अध्यक्ष पद हेतु लड़ने के लिए जब कोई भी तैयार नहीं हुआ तब महात्मा गांधी ने पट्टाभि सीतारमैया को अपना प्रतिनिधि बनाकर चुनाव में खड़े करने का निर्णय लिया ताकि दक्षिण भारत के प्रतिनिधियों का पूर्ण समर्थन मिल सके।

सन् 1939 में नर्मदा के पुनीत तट पर त्रिपुरी में कांग्रेस के 52 वें अधिवेशन को लाने के लिए जबलपुर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों सेठ गोविंद दास, पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र, ब्यौहार राजेंद्र सिंहा, पंडित भवानी प्रसाद तिवारी, सवाईमल जैन और श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान आदि का विशेष योगदान रहा है।

शाश्वत त्रिपुरी तीर्थ क्षेत्रांतर्गत तिलवारा घाट के पास विष्णुदत्त नगर बनाया गया।इस नगर में बाजार, भोजनालयों व चिकित्सालयों की व्यवस्था की गई। जल प्रबंधन हेतु 90 हजार गैलन की क्षमता वाला विशाल जलकुंड बनाया गया। अस्थाई रूप से टेलीफोन और बैंक तथा पोस्ट ऑफिस की व्यवस्था की गई। दस द्वार बनाए गए। बाजार का नाम झंडा चौक रखा गया था।

जनवरी सन् 1939 से ही जबलपुर में कांग्रेस के प्रतिनिधि आने लगे थे। अंततः 29 जनवरी को सन् 1939 को मतदान हुआ और परिणाम अत्यंत विस्मयकारी आए। 1580वोट नेताजी सुभाष चंद्र बोस को मिले और महात्मा गाँधी व अन्य सभी के प्रतिनिधि पट्टाभि सीतारमैय्या को 1377 ही वोट मिल पाये। इस तरह नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने महात्मा गांधी के प्रतिनिधि पट्टाभि सीतारमैया को 203 वोट के अंतर से हरा दिया और गाँधी जी ने इसे अपनी व्यक्तिगत हार के रुप में स्वीकार कर लिया। चूँकि अब नेतृत्व हाथ से निकल गया था इसलिए दुबारा नेतृत्व कैंसे हाथ में लिया जाये। फिर क्या था? ऐंसी चालें चली गयीं जिससे इतिहास भी शर्मिंदा है!

गाँधी जी ने तत्कालीन विश्व की राजनीति का सबसे घातक बयान दिया पट्टाभि की हार मेरी (व्यक्तिगत) हार है। गाँधी जी जान गये थे, कि देश की युवा पीढ़ी और नेतृत्व सुभाष चन्द्र बोस के हाथ में चला गया है अब क्या किया जाए? इसलिए उक्त कूटनीतिक बयान दिया गया.। अब त्रिपुरी काँग्रेस अधिवेशन में पट्टाभि की हार को गाँधी जी ने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था।

5 मार्च को 52 वें अधिवेशन में नेताजी की विजय पर 52 हाथियों का जुलूस निकाला गया, नेताजी अस्वस्थ थे इसलिए रथ पर उनकी एक बड़ी तस्वीर रखी गई थी।

10 मार्च सन् 1939 को तिलवारा घाट के पास विष्णुदत्त नगर में 105 डिग्री बुखार होने बाद भी नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अपना वक्तव्य दिया जिसे उनके बड़े भाई श्री शरतचंद्र बोस ने पूर्ण किया। इस दिन 2 लाख स्वतंत्रता के दीवाने उपस्थित रहे यह अपने आप में एक अभिलेख है।

महात्मा गांधी ने अधिवेशन को केवल अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाया था वरन् उन्हें और उनके समर्थकों को यह स्पष्ट हो गया था कि अब देश का नेतृत्व उनके हाथों से निकल गया है, इसलिए कांग्रेस की कार्य समितियों ने सुभाष चंद्र बोस के साथ असहयोग किया (यह अलोकतांत्रिक था, परंतु गांधी जी का समर्थन था और यही तानाशाही भी)। साथ ही सुभाष बाबू को गांधी जी के निर्देश पर काम करने के लिए कहा गया जबकि अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस थे।

10 मार्च सन् 1939 को त्रिपुरी अधिवेशन में संबोधित करते हुए सुभाष बाबू ने अपना मंतव्य रखा कि अब अंग्रेजों को 6 माह का अल्टीमेटम किया जाए वह भारत छोड़ दें। इस बात पर गांधी जी और उनके समर्थकों के हाथ पांव फूल गए उधर अंग्रेजों को भी भारी तनाव उत्पन्न हो गया। इसलिए एक गहरी संयुक्त चाल के चलते नेताजी सुभाष चंद्र बोस का असहयोग कर विरोध किया गया।

अंततः नेताजी सुभाष चंद्र बोस सुभाष बाबू ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया।त्याग पत्र के उपरांत स्व का चरमोत्कर्ष हुआ। त्रिपुरी अधिवेशन में 10 मार्च सन् 1939 को उन्होंने अपने भाषण में यह कहा था कि द्वितीय विश्व युद्ध आरंभ होने के संकेत मिल रहे हैं इसलिए यही सही समय है कि अंग्रेजों से आर-पार की बात की जाए। परंतु गांधी जी और उनके समर्थकों ने विरोध किया। सच तो यह है कि सुभाष बाबू की बात मान ली गई होती तो देश 7 वर्ष पहले आजाद हो जाता और विभाजन की विभीषिका नहीं देखनी पड़ती।

सन् 1940 में व्यथित होकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की, परंतु बरतानिया सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया तब सुभाष चंद्र बोस ने आमरण अनशन का दृढ़ संकल्प व्यक्त किया। इसलिए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें डर कर मुक्त कर दिया।तदुपरांत जनवरी 1941 को सुभाष चंद्र बोस वेश बदलकर कोलकाता से काबुल, मास्को होते हुए जर्मनी पहुंच गए जहां पर हिटलर से मिलने के उपरांत जापान से तादात्म्य स्थापित कर सिंगापुर पहुंचे। आजाद हिंद फौज के महानायक बने।

5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने सुप्रीम कमाण्डर के रूप में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जी ने सेना को सम्बोधित करते हुए दिल्ली चलो! का नारा दिया और जापानी सेना के साथ मिलकर बर्मा सहित आज़ाद हिन्द फ़ौज रंगून (यांगून) से होती हुई थलमार्ग से भारत की ओर बढ़ती हुई.

18 मार्च सन 1944 ई. को कोहिमा और इम्फ़ाल के भारतीय मैदानी क्षेत्रों में पहुँच गई और ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से जमकर मोर्चा लिया। बोस ने अपने अनुयायियों को जय हिन्द का अमर नारा दिया और 21 अक्टूबर 1943 में सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार आज़ाद हिन्द सरकार की स्थापना की। उनके अनुयायी प्रेम से उन्हें नेताजी कहते थे।

आज़ाद हिन्द फ़ौज का निरीक्षण करते सुभाष चन्द्र बोस अपने इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा सेनाध्यक्ष तीनों का पद नेताजी ने अकेले संभाला। इसके साथ ही अन्य जिम्मेदारियां जैसे वित्त विभाग एस.सी चटर्जी को, प्रचार विभाग एस.ए. अय्यर को तथा महिला संगठन लक्ष्मी स्वामीनाथन को सौंपा गया। उनके इस सरकार को जर्मनी, जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दे दी।

जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थायी सरकार को दे दिये। नेताजी उन द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया। अंडमान का नया नाम शहीद द्वीप तथा निकोबार का स्वराज्य द्वीप रखा गया। 30 दिसम्बर 1943 को इन द्वीपों पर स्वतन्त्र भारत का ध्वज भी फहरा दिया गया। इसके बाद नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने सिंगापुर एवं रंगून में आज़ाद हिन्द फ़ौज का मुख्यालय बनाया।

4 फ़रवरी 1944 को आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा भयंकर आक्रमण किया और कोहिमा, पलेल आदि कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया।21 मार्च 1944 को दिल्ली चलो के नारे के साथ आज़ाद हिंद फौज का हिन्दुस्तान की धरती पर आगमन हुआ।

        22 सितम्बर 1944 को शहीदी दिवस मनाते हुये सुभाषचन्द्र बोस ने अपने सैनिकों से मार्मिक शब्दों में कहा हमारी मातृभूमि स्वतन्त्रता की खोज में है। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा। यह स्वतन्त्रता की देवी की माँग है।

जापान की पराजय के उपरांत नेताजी सुभाष चंद्र बोस वास्तविकता से अवगत होने के लिए हवाई जहाज जापान रवाना हुए 18 अगस्त सन् 1945 फारमोसा में विमान दुर्घटना में मृत घोषित कर दिया गया परंतु यह सच नहीं था और अब प्रमाण भी सामने आ रहे हैं। बावजूद इसके नेताजी सुभाष चंद्र बोस और उनकी आजाद हिंद फौज की स्व के लिए पूर्णाहुति ही बरतानिया सरकार से भारत की स्वाधीनता के लिए राम बाण प्रमाणित हुई।

यह मत प्रवाह कि उदारवादियों ने स्वाधीनता दिलाई बहुत ही हास्यास्पद सा लगता है क्योंकि सन् 1940 में द्विराष्ट्र सिद्धांत की घोषणा हुई और भारत के विभाजन पर संघर्ष मुखर हो गया था, परिस्थितियां विपरीत बनती गईं, विभाजन को लेकर तथाकथित राष्ट्रीय आंदोलन बिखर गया था।

स्वाधीनता का श्रेय लेने वाला उदारवादी दल बिखर गया था और वह जिन्ना को नहीं संभाल पाया। अंततोगत्वा भारत के विभाजन को लेकर हिंदू मुस्लिम विवाद आरंभ हुए और बरतानिया सरकार के विरुद्ध संग्राम लगभग समाप्त हो गया था।

सन् 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन ने 3 माह में ही दम तोड़ दिया था तो दूसरी ओर विभाजन तय दिखने लगा था। ऐंसी परिस्थिति में महात्मा गांधी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए थे और बाद में विनाशकारी निर्णय में सम्मिलित भी हो गए।

सन् 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हुआ और उसके उपरांत इंग्लैंड में लेबर पार्टी की सरकार बनी। इंग्लैंड के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने जून 1948 तक भारत छोड़ने की घोषणा की परंतु विभाजन कर, एक वर्ष पूर्व ही अंग्रेजों ने 15 अगस्त सन् 1947 में भारत छोड़ दिया। यह सन् 1956 तक बहुत ही रहस्यमय बना रहा कि आखिर ऐंसा क्या हो गया था? कि ब्रिटानिया सरकार ने 1 वर्ष पूर्व ही भारत छोड़ दिया।

इस रहस्य का खुलासा सन् 1956 में क्लीमेंट एटली ने किया, जब वे सेवानिवृत्त होने के बाद कलकत्ता आए, वहां पर गवर्नर ने एक भोज के दौरान उनसे पूंछा कि आखिरकार ऐसी कौन सी हड़बड़ी थी कि आपने 1 वर्ष पहले ही भारत छोड़ दिया, तब क्लीमेंट एटली ने जवाब दिया कि सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के असफल हो जाने के बाद महात्मा गांधी हमारे लिए कोई समस्या नहीं थे, परंतु नेताजी सुभाष चंद्र बोस और उनकी आजाद हिंद फौज के कारण भारतीय सेना ने हमारे विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। तत्कालीन भारत के सेनापति अचिनलेक ने अपने प्रतिवेदन में सन् 1946 में जबलपुर से थल सेना के सिग्नल कोर के विद्रोह, बंबई से नौसेना का विद्रोह, करांची और कानपुर से वायु सेना के विद्रोह का हवाला देते हुए स्पस्ट कर दिया था कि अब भारतीय सेना पर हमारा नियंत्रण समाप्त हो रहा है जिसका तात्पर्य है कि अब भारत पर और अधिक समय तक शासन करना असंभव होगा, और यदि शीघ्र ही यहां से हम लोग वापस नहीं गए तो बहुत ही विध्वंस कारी परिस्थितियां निर्मित हो सकती हैं और यही विचार अन्य विचारकों का भी था। इसलिए हमने 1 वर्ष पूर्व ही भारत छोड़ दिया परंतु भारतीय इतिहास में सेनाओं के स्वाधीनता संग्राम को विद्रोह का दर्जा देकर दरकिनार कर दिया गया।

स्वाधीनता के अमृत महोत्सव पर यह श्रेय नेताजी सुभाष चंद्र बोस और उनकी आजाद हिंद फौज के साथ भारतीय सेना को ही जाना चाहिए। यह गौरतलब है कि माउंटबेटन और एडविना ने जो अपनी डायरियाँ लिखी थीं, वे वसीयत के अनुसार इंग्लैंड के एक विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में सुरक्षित कराई थीं, हाल ही में इंग्लैंड में एक पत्रकार ने सूचना के अधिकार के अंतर्गत इनकी जानकारी मांगी है, तथा एक पुस्तक “one life many loves” शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली है, परंतु इंग्लैंड की सरकार, दबाव बना रही है, कि माउंटबेटन की डायरियों का खुलासा ना किया जाए क्योंकि यदि माउंटबेटन और एडविना की डायरियों का खुलासा हुआ तो बहुत से उदारवादी निर्वस्त्र हो जाएंगे और सत्ता के लिए संघर्ष का भी आईना साफ हो जाएगा।

आशा करते हैं कि बहुत जल्दी ही यह पुस्तक प्रकाशित होकर सामने आएगी।भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अद्भुत और अद्वितीय महा महारथी अमर बलिदानी श्रीयुत नेताजी सुभाष चंद्र बोस को स्व की विजय और प्राप्ति के लिए चिरकाल तक जाना जाएगा। नेताजी सुभाष चंद्र बोस का अवदान वर्तमान और भावी पीढ़ी को सदैव याद दिलाता रहेगा कि मैं रहूं या न रहूं, मेरा ये देश भारत रहना चाहिए

!!जय हिंद!!

       आलेख
डॉ. आनंद सिंह राणा

 


 

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