7 जुल॰ 2008

स्व.भूपेन्द्र कौशिक " फ़िक्र"

फ़िक्र साहब से स्वतंत्र मत के लिए साक्षात्कार लिया था शायद 1999-2000 में उसे सम्हाल के रखा गया
उनके पौत्र ने

स्वर्गीय भूपेन्द्र कौशिक ''फ़िक्र'' साहब



भूपेंद्र कौशिक '' फ़िक्र' जी जबलपुर तीखे व्यंग्य कार थे । उनके जीवन में भी उतनी बेबाकी ताउम्र उनके साथ रही मैंने कभी उनका साक्षात्कार लिया था स्वतंत्र मत अखबार के लिए उस अखबार की यह कटिंग उनके पौत्र यानि कि निशांत कौशिक ने उपलब्ध कराई निशांत दादा जी के बड़े ही चहेते रहें हैं उनके ब्लाग'स ये रहे


फ़िक्र साहब की एक कविता
शहर में बहुत से विद्वान हैं
मुंह में बहुत से दांत हैं
शहर में विद्वान न हों
मुंह में दांत न हों
तो अजगर का आकार बनता है
अजगर अंधकार का प्रतीक है
अन्धकार जो सूरज को भी निगलता है
अंधकार जिस के पेट में रौशनी कि हड्डियाँ टूटती हैं
इन हड्डियों के टूटने कि आवाज सारा शहर सुनता है
और जो भी अपने आप को ज़रा भी विद्वान समझता है
वह अपने ही पेट में इस आवाज को महसूस करता है
पेट का भय ही सबसे बड़ा भय है
इस भय के कारण ही
सबके अपने अपने अहाते बन गए हैं
जो भी अपने अहाते में है
विद्वान है
यह काम बहुत आसान है
हर चौराहे पर नकली दांतों कि दुकान है
आज सारा शहर विद्वान है

3 टिप्‍पणियां:

  1. निशांत कौशिक ne orkut ke zarie tippani ke :-
    uncle aapne dhokhe se मेरे नाम के आगे इस "फिक्रे" ka pryog kar liya hai... चलिए.. कोई बात नहीं.. यह तो कोई विषय भी नहीं है..
    यह अरबी का शब्द है..
    "आस हमीदा म'अत शहीदा..."
    इसका उर्दू मैं अर्थ है....
    "आज सब उसकी कब्र पर चादरें चढाते हैं..
    तमाम उम्र जो दुनिया मैं बेलिबास रहा..."
    बाउजी कि कृपा से .. मैं ने उर्दू,, फारसी,,पंजाबी,,मलयालम,,,तमिल,आदि भाषाएँ.. सीखीं..और ज्ञान के इस दान के लिए.. उन्हें.. सदा सदा नमन है..
    आपका बहुत बहुत धन्यवाद जो आपने उनकी खबर को अपने ब्लॉग पर जगह दी...
    बाउजी आपको बहुत पसंद करते थे.. मैं ने एक बार आपकी फोटो देखकर..पुछा था तो.. उन्होंने कहा.. की गिरीश जी भीड़ मैं अकेले आदमी है...
    आपसे मिलकर यह ज्ञात तो हो गया कि.. गिरी का भी गिरीश है..
    मुझे आपका व्यवहार और स्नेह बहुत अच्छा लगा.. हम पर अपना फ़ज़्ल बनाएं रखें...
    आपका बहुत बहुत धन्यवाद... आपको किसी भी कार्य के लिए.. अगर ज़रुरत पड़े तो.. मैं हाज़िर हूँ..

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  2. फिक्र साहब का यह इन्टरव्यू जब स्वतंत्र मत में छपा था..उसी वक्त देखा था. उस समय मैं स्वयं स्वतंत्र मत से करीबी से जुड़ा था बाबू के साथ.

    आभार इसे पेश करने का.

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  3. समीर जी
    आभार
    आपको भी पुराने दिन याद आ ही गए सच
    पुरानी यादें तो नानी-दादी के दुलार-के-एहसास से कमतर कतई नहीं होतीं
    फ़िक्र साहब का इन्टरव्यू मेरे लिए एक "एहसास-ऐ-सुकूँ" से कमतर नहीं
    पर आपकी याददाश्त सुभान-अल्लाह
    कविता पर टिपिया कर आपने जो उत्साह बढाया उसका आभारी हूँ

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!