21 सित॰ 2009

इश्क ऐ कौव्वा-कव्वी


मेरी प्रेमिका " कल इस गीत को अपने लेपटाप पर जो कदापि लेप पर नहीं रखा जाता बजावा रही थी बार बार

"तीसरी-मज़िल" का कर्ण प्रिय गीत आशा और रफ़ी साहब के सुरों में "ओ मेरे सोना रे सोना रे सोना रे"
संगीतकार राहुलदेव बर्मन और मजरूह के शब्दों की यह भेंट आपको ज़रूर पसंद आयेगी
ओ मेरे सोना रे सोना रे सोना रे दे दूंगी जान जुदा मत होना रे
मैने तुझे ज़रा देर में जाना हुआ कुसूर खफ़ा मत होना रे २
ओ मेरे सोना रे सोना रे सोना रे
ओ मेरी बाँहों से निकलके तू अगर मेरे रस्ते से हट जाएगा
तो लहराके, हो बलखाके मेरा साया तेरे तन से लिपट जाएगा
तुम छुड़ाओ लाख दामन छोड़ते हैं कब ये अरमां
कि मैं भी साथ रहूँगी रहोगे जहाँ
ओ मियां हमसे न छिपाओ वो बनावट कि सारी अदाएं लिये
कि तुम इसपे हो इतराते कि मैं पीछे हूँ सौ इल्तिज़ाएं लिये
जी मैं खुश हूँ मेरे सोना झूठ है क्या, सच कहो ना
कि मैं भी साथ रहूँगी रहोगे जहाँ
ओ फिर हमसे न उलझना नहीं लट और उलझन में पड़ जाएगी
ओ पछताओगी कुछ ऐसे कि ये सुरखी लबों की उतर जाएगी
ये सज़ा तुम भूल न जाना प्यार को ठोकर मत लगाना
कि चला जाऊंगा फिर मैं न जाने कहाँ
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सच आजकल प्यार की नैसर्गिकता को जानने के लिए इंसान को नहीं इन पक्षियों-पशुओं को देखिए जी कितनी सचाई है और हम हैं की.........................?

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर गीत .. इंसान होकर भी हम पशु पक्षी से गए बीते हो जाते हैं .. सही कहना है आपका !!

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  2. हा हा बहुत बेहतरीन तरीक़ा मुकुल भाई बात कहने का। आप आप ही हो।

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!