29 अक्तू॰ 2009

समय तुम्हारा सुधरना ज़रूरी है


समय तुम
मेरे भाग्य-चक्र को
घुमाते हो
शायद तुम मेरे अस्तित्व को
आजमाते हो.....?
चलूं आज तुम्हैं
रोकने
कलाई घडी
रोक देता हूं !
तुम मुझसे असहमत हो
मैं तुमसे
क्यों न हम
एक बार फ़िर अज़नवी बन जाएं
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समय
सांसों के काफ़िले को
अपनी आज़ादी मिली है
धडकनों की अपनी राह है
फ़िर तुम्हारा हस्तक्षेप हर ओर..?
समय तुम्हारा सुधरना ज़रूरी है
भले हस्तक्षेप तुम्हारी आदत है
या फ़िर मज़बूरी है.....!
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ओ समय, तुम जो भी हो
स्वतन्त्रता के भंजक नहीं हो सकते
तुमको समाज़ में रहना है
सादगी से रहो
संजीदगी से रहो
सहजता से रहो
सबके रहो
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मैं जानता हूं
तुम समझदार नहीं हो
कभी कभार असरदार भी नहीं होते
तब मेरे प्रहार से बचना
मुझे तुम्हैं सुधारना आता है
मैं तुम्हारा और भाग्य का गुलाम नहीं

4 टिप्‍पणियां:

  1. समय भी इंतजार करता है
    हर सच्चे से प्यार करता है
    और फिर आपके सच्चे स्वर क्या कहने

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  2. समय के साथ हमारा ऐसा ही द्वन्द्वात्मक रिश्ता होता है समय को हम अपने इशारो पर नचाना चाहते है और वह हमे अपने इशारों पर नचाता है । अच्छी रचना ।

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  3. बहुत बहुत और बहुत ही बेहतरीन बात। कहीं दूर कुछ सुलग रहा है!

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!