30 अक्तू॰ 2009

नवगीत: पीले पत्तों की/पौ बारह, संजीव 'सलिल'

आज का गीत:

संजीव 'सलिल'

पीले पत्तों की
पौ बारह,
हरियाली रोती...
*
समय चक्र
बेढब आया है,
मग ने
पग को
भटकाया है.
हार तिमिर के हाथ
ज्योत्सना
निज धीरज खोती...
*
नहीं आदमी
पद प्रधान है.
हावी शर पर
अब कमान है.
गजब!
हताशा ही
आशा की फसल
मिली बोती...
*
जुही-चमेली पर
कैक्टस ने
आरक्षण पाया.
सद्गुण को
दुर्गुण ने
जब चाहा
तब बिकवाया.
कंकर को
सहेजकर हमने
फेंक दिए मोती...
*

7 टिप्‍पणियां:

  1. जुही-चमेली परकैक्टस ने
    आरक्षण पाया.
    सद्गुण कोदुर्गुण नेजब चाहा तब बिकवाया.
    कंकर को सहेजकर हमने फेंक दिए मोती...
    वर्तमान स्थिति को अच्छी तरह बयान कर दिया है ..!!

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  2. बहुत ही धारदार रचना। मोती फेंके जा रहे हैं और कंकरों को सहेजा जा रहा है। यही दुर्भाग्‍य है।

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  3. जूही चमेली पर कैक्टस ने आरक्षण पाया। क्या बात है सर। बहुत उम्दा बहुत बेहतर।

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!