तेवरी
आचार्य संजीव 'सलिल'
मार हथौडा, तोड़ो मूरत.
बदलेगी तब ही यह सूरत..
जिसे रहनुमा मन हमने
करी देश की उसने दुर्गत..
आरक्षित हैं कौए-बगुले
कोयल-राजहंस हैं रुखसत..
तिया सती पर हम रसिया हों.
मन पाले क्यों कुत्सित चाहत?.
खो शहरों की चकाचौंध में
किया गाँव का बेड़ा गारत..
क्षणजीवी सुख मोह रहा है.
रुचे न शाश्वत-दिव्य विरासत..
चलभाषों की चलाचली है.
'सलिल' न कासिद और नहीं ख़त..
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मयकदा पास हैं पर बंदिश हैं ही कुछ ऐसी ..... मयकश बादशा है और हम सब दिलजले हैं !!
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अच्छा है......
जवाब देंहटाएंसटीक वार!! सुन्दर रचना.
जवाब देंहटाएंमार हथौडा, तोड़ो मूरत.
जवाब देंहटाएंबदलेगी तब ही यह सूरत..
तोड दो सारी मुर्तिया, सब से पहले हाथी वाली फ़िर म.............