11 अप्रैल 2010

माचिस की तीली के ऊपर बिटिया की पलती आग:भाग एक

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माचिस की तीली के ऊपर
बिटिया की पलती आग
यौवन की दहलीज़ पे जाके
बनती संज्ञा जलती आग
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सभ्य न थे जब हम वनचारी
था हम सबका एक धरम
शब्द न थे संवादों को तब
नयन सुझाते स्वांस मरम .
हां वो जीवन शुरू शुरू का
पुण्य न था न पापी दाग...!
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खेल खेल में वनचारी ने
प्रस्तर-प्रस्तर टकराए
देख के चमकीले तिनके वो
घबराये फिर मुस्काये
बढा साहसी अपना बाबा
अपने हाथौं से झेली  आग...!
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फिर क्या सूझा जाने उनको
समझी आग से नाते दारी .
पहिया बना  लुडकता पत्थर
बना आदमी पूर्ण शिकारी .
मृगया कर वो देह भूनता
बन गई जीवन साथी आग ...!
***********************
        क्रमश: जारी

4 टिप्‍पणियां:

  1. माचिस की तीली के ऊपर
    बिटिया की पलती आग
    यौवन की दहलीज़ पे जाके
    बनती संज्ञा जलती आग

    वाह ....बहुत सुंदर ....!!

    आपकी शायद मैंने पहली कविता पढ़ी है ....ये ब्लॉग आपके बलों पे तो नहीं दीखता ....???

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  2. बिम्बों के माध्यम से
    बहुत ही गहरी सम्वेदना को
    प्रकट किया है आपने!
    अगली रचना की प्रतीक्षा है

    जवाब देंहटाएं
  3. हा हा हकीर जी
    प्रणाम
    भाइ खखूब तेज़ याददाश्त है आपकी
    मेरी ही लम्बी कविता. है
    अब सिलसिलेवार पोस्ट कर रहा हूं

    जवाब देंहटाएं

कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!