30 मई 2010

मुक्तिका: .....डरे रहे. --संजीव 'सलिल'













मुक्तिका

.....डरे रहे.

संजीव 'सलिल'
*
हम डरे-डरे रहे.
तुम डरे-डरे रहे.

दूरियों को दूर कर
निडर हुए, खरे रहे.

हौसलों के वृक्ष पा
लगन-जल हरे रहे.

रिक्त हुए जोड़कर
बाँटकर भरे रहे.

नष्ट हुए व्यर्थ वे
जो महज धरे रहे.

निज हितों में लीन जो
समझिये मरे रहे.

सार्थक हैं वे 'सलिल'
जो फले-झरे रहे.

**************

8 टिप्‍पणियां:

  1. दूरियों को दूर कर
    निडर हुए, खरे रहे.
    ये ही आज किसी भी बदलाव को लाने में सक्षम हो सकता है |

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  2. छोटी बहर में मर्मस्पशी गजल....बहुत सुन्दर।

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  3. रिक्त हुए जोड़कर
    बाँटकर भरे रहे.
    नष्ट हुए व्यर्थ वे
    जो महज धरे रहे.
    बहुत ख़ूबसूरत और दिल को छू लेने वाली ग़ज़ल!

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!