2 सित॰ 2008

जो जिया वो प्रीत थी ,


जो जिया वो प्रीत थी ,अनजिया वो रीत है
शब्द भरम को तोड़ दे ,वोही तो मेरा गीत है
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प्रीत के प्रतीक पुष्प -माल मन है गूंथता
भ्रमर बागवान से -"कहाँ है पुष्प ?" पूछता !
तितलियाँ थीं खोजतीं पराग कण
पुष्प वेणी पे सजा उसी ही क्षण ,!
कहो ये क्या प्रीत है या तितलियों पे जीत है…….?
शब्द भरम को तोड़ दे ,वोही तो मेरा गीत है !
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सुबह,-"सुबह" उदास सी,उठी विकल पलाश सी
चुभ रही थी वो सुबह,ओस हीन घास सी
हाँ उस सुबह की रात का पथ भ्रमित सा मीत है
शब्द भरम को तोड़ दे ,वोही तो मेरा गीत है !
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तभी तो हम हैं हम ज़बाँ को रात में तलाशते
मिल गए तो खुश हुए,मिले न तो उदास से
यही तो जग की रीत है हारने में जीत है
शब्द भरम को तोड़ दे ,वोही तो मेरा गीत है !
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7 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर गीत है।

    तितलियाँ थीं खोजतीं पराग कण
    पुष्प वेणी पे सजा उसी ही क्षण ,
    कहो ये क्या प्रीत है
    या तितलियों पे जीत है

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  2. जो जिया वो प्रीत थी ,अनजिया वो रीत है
    शब्द भरम को तोड़ दे ,वोही तो मेरा गीत है
    बहुत ही सुन्दर कविता, खुब सुरत शव्द
    धन्यवाद

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  3. बाली जी
    श्रृंगार की कठोरता के विरुद्ध
    विद्रोही भाव है मन में
    आभारी हूँ आपका

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  4. दादा
    शुक्रिया आभार
    स्नेह बनाए रखिए

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  5. समीर भाई
    आज क्या व्यस्त हैं
    सबसे पहले बाली जी फ़िर दादा-"राज"
    पर आप क्या............?

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  6. तभी तो हम हैं हम ज़बाँ को रात में तलाशते
    मिल गए तो खुश हुए,मिले न तो उदास से
    यही तो जग की रीत है हारने में जीत है
    शब्द भरम को तोड़ दे ,वोही तो मेरा गीत है !

    in lino ne mujhe aapka kayal bna diya
    bahut achche

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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!