28 जून 2009

कहानी:"हाँ मुझे भी तुमसे इश्क है "

"१०१२ वीं पोस्ट एक प्रेम कहानी "

संयोग ही था कि सुषमा के भावों को समझने में उसे बेहद देर लगी उससे भी ज़्यादा देर हुई संकेत समझ कर अनुवादन में. आज जब संस्कारों के पर्वत को पार कर नेह निमंत्रण देती आँखों में झांका तो एक तपस्वनी सी लग रही थी वो मुझे..? विपरीत परिस्थिति में मेरा साथ निभाती वो साँवली सलोनी मूरत अक्सर मेरी उदासी को अपनी उदासी मेरे उछाह को अपना उछाह समझती थी तब एक भी बार मन में इसका कारण मुझे न समझ आना और फिर अचानक ..............एक दिन जब मुझे लगा कि सुषमा मेरी नेह निमंत्रिका है तब तक समय का पाखी सथियों को अपने परों में लपेट कर इतनी दूर जा चुका था कि किसी भी सूरत में उससे उन स्थितियों को वापस लाना संभव न था.
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"सुषमा जी, आप चाहें तो इस काम को कल निपटाइए . "
"न सर, फिर हेड आफिस से कोई फरमान आ जाएगा तो फिर ..?"
"हाँ, ये तो है, पर अब देर भी तो ...?"
"कोई बात नहीं सर "
सुषमा ने सहजता से उस काम को अंतिम रूप दिया जो मेरे लिए एक उपलब्धि होने जा रहा था . अगले ही दिन हेड ऑफिस का फरमान आया कि दो घंटे में सर्वे रिपोर्ट तैयार हो जाए . तब जाकर लगा कि सुषमा आगे तक परफेक्ट सोच वाली है जिस काम के लिए अन्य मातहत टालमटोल कर रहे थे सुषमा ने समय के पूर्व ही निपटा दिया . बावजूद इसके मुझे समझ नहीं आ रहा था कि कौन सी बात मुझसे जोड़ रही थी उसे . जो हर पल सुषमा बेचैन रहती किसी न किसी बहाने मेरे इर्द गिर्द बने रहने के लिए
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बीमारी की वज़ह से तीन दिन की सी एल के आवेदन के साथ एक पेपर लगा था जिसमें कई सारे सरकारी अधूरे काम का ज़िक्र था . कैसे और कब तक किससे से कराना संभव होगा स्पष्ट रूप से लिखा था . पहला दिन तो यूं ही गुज़र गया किन्तु दूसरी सुबह बिना सुषमा के ऑफिस ऑफिस सा नहीं लग रहा था . चैम्बर का दरवाजा खुलता तो लगता सुषमा आ रहीं हैं . कई बार घंटी बजा कर प्यून बुलाया सुषमा को बुलाने को कहना चाहा फिर याद आते ही वापस भगा दिया .साथ-साथ रहते कोई बात समझ न आए वो बात तब आसानी से मन मीत के अभाव में ज़रूर समझ में आती है . आज एहसास हुआ कि सुषमा केवल कर्मचारी नहीं मेरे दिल की अधिकारी है.... जैसे तैसे लंच तक अपने आप को जप्त किया और बॉस को छुट्टी का मेल कर ऑफिस से निकला . घर गोया कहीं ज़्यादा वीरान लग रहा था क्या करुँ कहाँ जाऊं कुछ समझ में न आया फिर बदहवास सा घर से सीधे फ्लेट नंबर डी-22 में पहुँच गया जी सुषमा का यही घर कभी एक बार छोड़ने आया था और तीन बरस बाद आज आया .कई बार सोच विचार कर काल बेल न दबा सका. उलटे पाँव वापस जा रहा था कि नीचे सीडियों से पीली चेक साडी में लिपटी सुषमा ऊपर आती नज़र आयी . पास आते ही पूछ बैठी "सर,कोई ख़ास बात . ?"
मैं-"नहीं,वो मेरा मित्र प्रभात है न यहीं डी-21 में जो रहता है ! "
अरे सर बताया था न वो लोग नर्मदा रोड में चले गए सर आपका कार्ड भी तो था उनके गृह प्रवेश का याद कीजिए .
अपनी चोरी पकडी जान मन में अजीब सा अपराध बोध लिए ज़ल्द लौटना चाहता था .किन्तु सुषमा के आगृह ने गोया पाँव गस दिए . सुषमा के पीछे पीछे आज्ञाकारी सेवक सा हो लिया.
कालबेल बजाते ही सुषमा के पापा ने दरवाजा खोला . परिचय तो था ही सो बात चीत का सिलसिला पापा से चल निकला बातों बातों में मुझे बताया कि सुषमा को देखने कोई आने वाले हैं . सुन कर यूं लगा मानो किसी मज़बूत मकान को अर्रा के गिरते देख रहा हूँ ?
चाय-नास्ते के बाद वापस लौटते वक़्त मेरे उदास चेहरे को बांच उसने पूछा:"सर,उदास क्यों हैं ? कोई ख़ास वज़ह ?"
"हाँ,मैं कोई काम वक़्त पर नहीं करता जिससे मुझे कई बार नुकसान हुआ है "
सर, यदि ऑफिस का कोई प्राबलाम्ब हो तो मैं चलूँ ?
नहीं सुषमा, ज़िन्दगी का है तुम आने वालों का ध्यान रखो,
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ठीक तीसरे दिन , ऑफिस का नंबर सेल फोन पर ब्लिंक हुआ. दो बार मिस्ड होने के बाद तीसरी बार जब सुषमा का नंबर ब्लिंक हुआ तो उठाना लाज़मी था. अनमने ढंग से मेरा हेलो कहना उसे नागवारा गुज़रा. उसने मुझसे पूछा "ज़्यादा तबीयत खराब है ?"
"हाँ ?"
"सर, मैं आती हूँ "
ठीक पंद्रह मिनट बाद सुषमा फ्लेट में थी. मैंने कहा "क्यों कष्ट कर रहीं हैं आप ?"
"इसमें कष्ट क्या ............ आप वक्त पर काम नहीं करते आप मासूम भी हैं मुझे आपकी कमजोरी का ज्ञान है "
"क्या मतलब, मेरी तनाव ग्रस्त पेशानी पर हाथ रख सुषमा चहक उठी तीन दिन में ये हाल कर लिया ज़िन्दगी कैसे काटेंगे आप मेरे बगैर अनिमेष......?"
सर से अनिमेष संबोधन सुन मेरे मन में शांत पडा अभिव्यक्ति का ज्वालामुखी अचानक फूट पडा-" हाँ मुझे भी तुमसे इश्क है तुमसे ही पर अब क्या फायदा अब तो तुम यू एस ए जाओगी एन आर आई से ब्याह के !!"
"अनिमेष, तुम जैसी कमज़ोर नहीं हूँ मैंने उसे बता दिया था कि में अनिमेष से प्यार करतीं हूँ "

4 टिप्‍पणियां:

कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!