वो
दिव्य चक्षु
नर्मदा तट पर
जब
बिखेरता है
एकतारे की तान !!
स्तब्ध हो जातीं हैं
मन में प्रवाहित वेदनाएं
रुक जातीं थीं
पथचारी की बे परवाह कुंठाएं !!
लौटतीं हैं जब एक तारे की तान
भेडाघाट की संग-ए-मरमर टकरा कर
तब लगता है साक्षात अध्यात्म और सुकून कहीं और नहीं
"यहीं है हाँ यहीं है "
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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!