तेवरी
संजीव 'सलिल'
पाखंडी झंडे लिये, रहे देश को लूट.
आड़ एकता की लिये, डाल रहे हैं फूट..
सज्जन पर पाबंदियाँ, लुच्चों को है छूट.
तुलसी बाहर फेंक दी, घर में रक्षित बूट..
चमचम-जगमग कलश तो, बिखरे पल में टूट.
नींव नहीं मजबूत यदि, भरी न जी भर कूट..
गुनी अल्प, निर्गुण करें, उन्हें निरंतर हूट.
ठग पुजता है संत सम, सर पर धरकर जूट..
माप श्रेष्ठता का हुआ, मंहगा चश्मा-सूट.
'सलिल' न कोई देखता, किसकी कैसी रूट?.
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कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!