गीत
संजीव 'सलिल'
*
*
बेचते हो क्यों
कहो निज आँख का पानी?
मोल समझो
बात का यह है न बेमानी....
जानती जनता
सियासत कर रहे हो तुम.
मानती-पहचानती
छल कर रहे हो तुम.
हो तुम्हीं शासक-
प्रशासक न्याय के दाता.
आह पीड़ा दाह
बनकर पल रहे हो तुम.
खेलते हो क्यों
गँवाकर आँख का पानी?
मोल समझो
बात का यह है न बेमानी....
लाश का
व्यापार करते शर्म ना आई.
बेहतर तुमसे
दशानन ही रहा भाई.
लोभ ईर्ष्या मौत के
सौदागरों सोचो-
साथ किसके गयी
कुर्सी साथ कब आई?
फेंकते हो क्यों
मलिनकर आँख का पानी?
मोल समझो
बात का यह है न बेमानी....
गिरि सरोवर
नदी जंगल निगल डाले हैं.
वसन उज्जवल
पर तुम्हारे हृदय काले हैं.
जाग जनगण
फूँक देगा तुम्हारी लंका-
डरो, सम्हलो
फिर न कहना- 'पड़े लाले हैं.'
बच लो कुछ तो
जतन कर आँख का पानी
मोल समझो
बात का यह है न बेमानी....
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मयकदा पास हैं पर बंदिश हैं ही कुछ ऐसी ..... मयकश बादशा है और हम सब दिलजले हैं !!
एक ज़रूरी सवाल है......
जवाब देंहटाएंवाह सलिल जी वाह
बेचते हो क्यों
कहो निज आँख का पानी?
मोल समझो
बात का यह है न बेमानी....
बहुत ही सुन्दर गीत!
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संवेदनाओं को जाग्रत करता हुआ !
संदेश प्रेषित करती कविता ।
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