30 जून 2008

रोड शो


ये महाशय शहर जबलपुर को अपनी नज़र से पूरे राजसी ठाट-बाट के साथ
आपको शायद यकीन न आ रहा तो भाई इस
वीडियो क्लिप इन महाशय को देखी

ये हैं श्रीमन टामी जी जो इन दिनों शहर जबलपुर की सडकों

पर रोड शो करते नज़र आ रहें हैं ।

आज ही मेरी बेटी पूछ रही थी "पापा,ये रोड शो क्या होता है...?"

इस वीडियो को देखने के बाद जो अर्थ उसके मानस पर छाएगा उसका आने वाले चुनाव के समय होने वाले रोड शो के समाचारों से जोड़ कर जब वो अर्थ निकालेगी तब क्या स्थिति होगी तो भाइयो इस ब्लॉग से छोटे बच्चों को दूर रखे

29 जून 2008

रविवार को ख़ास बनाने अमीर खुसरो और नुसरत साहब

नुसरत साहब के सुर में

रंग के बाद सुनिए

छाप तिलक


यू ट्यूब से साभार

एक गीत

मुझे सुनिए यहाँ =>Billore's

अदेह के सदेहप्रश्न कौन गढ़ रहा कहो ?
*****************
बाग में बहार में, ,
सावनी फुहार में !अदेह के सदेह
पिरो गया किमाच कौन
मोगरे के हार में !!
पग तले दबा मुझे कौन बढ़ गया कहो...?
*****************************
एक गीत आस का
एक नव प्रयास सा
गीत था अगीत था !
या कोई कयास था...?
गीत पे अगीत का वो दोष मढ़ गया कहो...?

28 जून 2008

फोटो-कविता:"तलाश"

  • "तलाश"
    जिंदगी की शुरुआत
    एक अनवरत तलाश
कचरे के ढेर पर ,पाॅलिथिन की पन्नियों में
मिल जाती हैं रोटियाँ ,
और
बीमारियों के विषाणु
यह तलाश जाने कब से जारी है
कविता:गिरीश बिल्लोरे "मुकुल" फोटो:संतराम चौधरी,

27 जून 2008

26 जून 2008

श्रद्धा जैन जी की भीगी गज़लें

ऐसा नहीं कि हमको मोहब्बत नहीं मिली
ऐसा नहीं कि हमको मोहब्बत नहीं मिली
थी जिसकी आरज़ू वही दौलत नहीं मिली

जो देख ले तो मुझसे करे रश्क ज़माना
सब कुछ मिला मगर वही क़िस्मत नहीं मिली

घर को सजाते कैसे,ये हर लड़की हैं सीखती
ज़िंदा रहे तो कैसे नसीहत नहीं मिली

किसको सुनाएँ क़िस्सा यहाँ, तेरे ज़ॉफ का
कहते हैं हम सभी से कि आदत नहीं मिली

देखा गिरा के खुद को ही क़दमों में उसके आज
“श्रद्धा” नसीब में तुझे क़ुरबत नहीं मिली
श्रद्धा जैन के ब्लॉग से साभार

25 जून 2008

प्रिया तुम्हारी पैजन छम-छम

प्रिया तुम्हारी पैजन छम-छम

प्रिया तुम्हारी पैजन छम-छम,
बाजे मन अकुलाए।
जोगी मन को करे बिजोगी,
नैनन नींद चुराए।।

बोले जो मिसरी रस घोले,
शकन हरे पूछ के कैसे?
बसी श्यामली मन में,
धड़कन का घर हिय हो जैसे,
मिलन यामिनी, मद मदिरा ले, जग के दु:ख बिसराए।

कटि नीचे तक, लटके चोटी,
चंद्र वलय के से दो बाले।
ओंठ प्रिया के सहज रसीले,
दो नयना मधुरस के प्याले।
प्रीति प्रिया की, धवल पूर्णिमा, नित अनुराग जगाए।

नयन बोझ उठाए क्षिति का,
तारों में अपने कल देखे।
इधर बावला धीरज खोता -
गीत प्रीत के नित लेखे।।
प्रीत दो गुनी हुई विरह में, मन विश्वास जगाए।

24 जून 2008

भेडाघाट

प्रभाकर पाण्डेय

शीर्षक नहीं बदलूँगा.....जालिमों प्रभाकर पाण्डेय की यह पोस्ट आज सबसे ज़ोरदार लगी
वे यहाँ तक कहते हैं कि
"जब सब 0 होता तो लेखक भी 0 होता और वह सीना तान के यह नहीं कह रहा होता की नहीं बदलूँगा, शीर्षक।
सोचिए जिम्मेदार कौन। इस चिट्ठे पर हमारे गणमान्य बुजुर्ग चिट्ठाकारों की एक भी टिप्पणी नहीं है जो इस बात की गवाह है कि उन लोगों ने इस शीर्षक को अहमियत ही नहीं दिया।
दोषी न शीर्षक है न जालिम दोस्तों, दोषी तो हम जालिम हैं।"
-प्रभाकर पाण्डेय
बधाइयाँ स्वीकारिए प्रभाकर जी

सच्ची समाज सेवा

[पुनर्प्रकाशन के लिए क्षमा ]
समाज सेवको अँगुली कटा के महाराणा प्रताप बनने वाले नेताओं, समाज सेवा के समाचारों की पेपर कटिंग लेकर जमाने भर को दिखाने वालो , सरकार को दिन भर गरियाने वालो ,सब कान खोल के सुन लो "आशीष ठाकुर " जबलपुर की शान है.... जो न तो पुरूस्कार न तो सम्मान और न ही सराहना के लिए काम,करते है बस अंतरात्मा की आवाज़ बेसहारा , बे जुबां , बेनाता, देहों को पांच तत्व में मिलाने "शव-दाह" की जिम्मेदारी लेते हें , ६ वर्षों से जारी ये सिलसिला अब तक रूका नहीं सरकार आप आशीष के लिए क्या सोच रहे है...मुझे नही मालूम , लेकिन मेरा मन आशीष की समाज सेवा का मुरीद हों गया है॥

एक पुलिस कर्मी का बेटा मेग्मा कम्पनी का एग्जीक्यूटिव आशीष ने १००० बेसहारा-बेनाता देहों का अन्तिम संस्कार किया लोग समझतें हैं "ये सिर्फ आशीष की ड्यूटी है ...!"

धर्म,वर्ग,भाषा,जाति, राजनीति के नाम पे हंगामा करने वालो अब तो चेतो आशीष से सीखो सच्ची समाज सेवा.....ये सलाह है आपके लिए मेरे लिए सबके लिए । लोग बाग़ आशीष के बारे में क्या सोचते हें मुझे नही मालूम ? मैं उनको देवदूत मानता हूँ यकीन करने आप उनसे बात कर सकतें है ०९३००१२२२४२ पर । जबलपुर के इस साहस को सलाम ........ राम.....राम......

प्रिय कवि/शायर और उनके कलाम

[01]ग़ालिब हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा कोई बताओ कि वो शोखे-तुंदख़ू क्या है ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न हमसे वरना ख़ौफ़-ए-बदामोज़ी-ए-अदू क्या है चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन हमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़ सिवाए बादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो चार ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी तो किस उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है बना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता वगर्ना शहर में "ग़ालिब" की आबरू क्या है ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता तेरे वादे पर जिये हम तो ये जान झूठ जाना के ख़ुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता तेरी नाज़ुकी से जाना कि बँधा था अह्दबोदा कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तवार होता कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता ये कहाँ की दोस्ती है के बने हैं दोस्त नासेह कोई चारासाज़ होता, कोई ग़मगुसार होता रग-ए-सन्ग से टपकता वो लहू कि फिर न थमता जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता ग़म अगर्चे जाँगुसिल है, पे कहाँ बचे के दिल है ग़म-ए-इश्क़ गर न होता, ग़म-ए-रोज़गार होता कहूँ किस से मैं के क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्योँ न ग़र्क़-ए-दरिया न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता उसे कौन देख सकता कि यगना है वो यक्ता जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो चार होता ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान "ग़ालिब" तुझे हम वली समझते, जो न बादाख़्वार होता [02]न दैन्यं न पलायनम् / अटल बिहारी वाजपेयी कर्तव्य के पुनीत पथ को हमने स्वेद से सींचा है,कभी-कभी अपने अश्रु और—प्राणों का अर्ध्य भी दिया है। किन्तु, अपनी ध्येय-यात्रा में—हम कभी रुके नहीं हैं।किसी चुनौती के सम्मुख कभी झुके नहीं हैं। आज,जब कि राष्ट्र-जीवन की समस्त निधियाँ,दाँव पर लगी हैं, और, एक घनीभूत अँधेरा—हमारे जीवन केसारे आलोक कोनिगल लेना चाहता है; हमें ध्येय के लिएजीने, जूझने औरआवश्यकता पड़ने पर—मरने के संकल्प को दोहराना है। आग्नेय परीक्षा की इस घड़ी में—आइए, अर्जुन की तरहउद्घोष करें :‘‘न दैन्यं न पलायनम्।’’ " [03] अशोक वाजपेयी हम अपने पूर्वजों की अस्थियों में रहते हैं- हम उठाते हैं एक शब्द और किसी पिछली शताब्दी का वाक्य-विन्यास विचलित होता है, हम खोलते हैं द्वार और आवाज़ गूँजती है एक प्राचीन घर में कहीं- हम वनस्पतियों की अभेद्य छाँह में रहते हैं कीड़ों की तरह हम अपने बच्चों को छोड़ जाते हैं पूर्वजों के पास काम पर जाने के पहले हम उठाते हैं टोकनियों पर बोझ और समय हम रुखी-सुखी खा और ठंडा पानी पीकर चल पड़ते हैं, अनंत की राह पर और धीरे-धीरे दृश्य में ओझल हो जाते हैं कि कोई देखे तो कह नहीं पायेगा कि अभी कुछ देर पहले हम थे हम अपने पूर्वजों की अस्थियों में रहते हैं- " [04] कैफ़ी आज़मी ~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~* सुना करो मेरी जाँ इन से उन से अफ़साने सब अजनबी हैं यहाँ कौन किस को पहचाने यहाँ से जल्द गुज़र जाओ क़ाफ़िले वालों हैं मेरी प्यास के फूँके हुए ये वीराने मेरी जुनून-ए-परस्तिश से तंग आ गये लोग सुना है बंद किये जा रहे हैं बुत-ख़ाने जहाँ से पिछले पहर कोई तश्ना-काम उठा वहीं पे तोड़े हैं यारों ने आज पैमाने बहार आये तो मेरा सलाम कह देना मुझे तो आज तलब कर लिया है सेहरा ने सिवा है हुक़्म कि "कैफ़ी" को संगसार करो मसीहा बैठे हैं छुप के कहाँ ख़ुदा जाने [05] रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' ~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~* क्या तुम भी सुधि से थके प्राण ले-लेकर अकुलाती होगी! जब नींद नहीं आती होगी! दिनभर के कार्य-भार से थक जाता होगा जूही-सा तनश्रम से कुम्हला जाता होगा मृदु कोकाबेली-सा आनन लेकर तन-मन की श्रांति पड़ी होगी जब शय्या पर चंचलकिस मर्म-वेदना से क्रंदन करता होगा प्रति रोम विकल आँखों के अम्बर से धीरे-से ओस ढुलक जाती होगी! जब नींद नहीं आती होगी! जैसे घर में दीपक न जले ले वैसा अंधकार तन में अमराई में बोले न पिकी ले वैसा सूनापन मन में साथी की डूब रही नौका जो खड़ा देखता हो तट पर - उसकी-सी लिये विवशता तुम रह-रह जलती होगी कातर तुम जाग रही होगी पर जैसे दुनियाँ सो जाती होगी! जब नींद नहीं आती होगी! हो छलक उठी निर्जन में काली रात अवश ज्यों अनजाने छाया होगा वैसा ही भयकारी उजड़ापन सिरहाने जीवन का सपना टूट गया - छूटा अरमानों का सहचर अब शेष नहीं होगी प्राणों की क्षुब्ध रुलाई जीवन भर क्यों सोच यही तुम चिंताकुल अपने से भय खाती होगी? जब नींद नहीं आती होगी!

23 जून 2008

इस पोस्ट को कमज़ोर दिल वाले न पड़ें

रंजू ranju जी ने अमृता प्रीतम की याद में पोस्ट प्रकाशित कर जहाँ अभिभूत किया है । वहीं दूसरी ओर मुद्दत हुई है यार को मेहमां किये हुए पोस्ट भी असरदार है लेकिन मीत साहब कलकत्ता वालों के इस ब्लॉग किस से कहें ? पे पहुंचा तो दंग रह गया।किस से कहें ? ब्लॉग खजाना है अन्तर जाल पे लुटा रहे हैं अपने मीत जी इनकी जितनी तारीफ़ करुँ कम है ।। MANAS BHARADWAJ --THE LAST POEM IS THE LAST DESIRE ब्लॉग है मानस भारद्वाज का जो इंजीनियरिंग की पढाई में व्यस्त होकर भी पोस्ट करतें हैं एक कविता लगभग रोज़ ....!
कमज़ोर दिल वाले आत्म केंद्रित वायरस के शिकार , और जिनको दूसरों की तारीफ़ सुनने के लिए डाक्टर ने मना किया हो वे इस पोस्ट को कतई न बांचें ।

22 जून 2008

सावधान सतयुग आ रहा है...!"

उडन तश्तरी ....: रोज बदलती दुनिया कैसी... को पड़कर याद सी आ रही है अशोक चक्रधर की वो कविता जिसमें आम आदमी को दूसरे के मन की बात पड़ने की शक्ति मिल जाती है । कैसे कैसे मजेदार सीन उभारतें हैं उस कविता चकल्लस वाले भैया जी ........!मैँ गंभीर हो गया हूँ इस मुद्दे पर डर भी लग रहा है सरकारी आदमीं हूँ रोज़िन्ना झूठ की सेंचुरी मारने के आदेश हैं इस सिस्टम के......?सो सोचा रहा हूँ कि व्ही0 आर0 एस0 ले लूँ....?वो दिन दूर नहीं जब तकनीकी के विकास के की वज़ह से लाईडिटेक्टर मशीन,ब्रेन-मेपिंग मशीन,आम आदमी की ज़द में आ सकती है और फ़िर सतयुग के आने में कोई विलंब न होगा ।

16 जून 2008

कचनार विशेषांक:अनुभूति में

अनुभूति का कचनार विशेषांक

पितृ-दिवस की कविता

मेरे सपने साथ ले गए
दुख के झंडे हाथ दे गए !
बाबूजी तुम हमें छोड़ कर
नाते-रिश्ते साथ ले गए...?
*********
काका बाबा मामा ताऊ
सब दरबारी दूर हुए..!
बाद तुम्हारे मानस नाते
ख़ुद ही हमसे दूर हुए.
*********
अब तो घर में मैं हूँ माँ हैं
और पड़ोस में विधवा काकी
रोज़ रात कटती है भय से
नींद अल्ल-सुबह ही आती.
*********
क्यों तुम इतना खटते थे बाबा
क्यों दरबार लगाते थे
क्यों हर एक आने वाले को
अपना मीत बताते थे
*********
सब के सब विदा कर तुमको
तेरहीं तक ही साथ रहे
अब हम दोनों माँ-बेटी के
संग केवल संताप रहे !
*********
दुनिया दारी यही पिताश्री
सबके मतलब के अभिवादन
बाद आपके हम माँ-बेटी
कर लेगें छोटा अब आँगन !

• गिरीश बिल्लोरे "मुकुल"

14 जून 2008

श्रीमती शशिकला सेन की प्रथम कृति विमोचित


एक तुम्हारा अपनापन का विमोचन पर्व 14 जून को पाथेय ने सौंप दिया सुधि जन के हाथों में । १८ मार्च ५६ को जन्मीं शशिकला सेन के जीवन की यात्रा संघर्ष पूर्ण रही है किंतु उनकी ७३ कविताओं में स्व पीडा से ज़्यादा सामस्टिक पीडा का पल्लवन दिखाई देता है
उनकी पहली कविता "अंतस की पीर "में भ्रूण हत्या को निशाना बनाया तो अतुकांत अन्य कवितायेँ मनोभावों की वाहिका हैं । इसमें कोई शक नहीं कि राजेश पाठक "प्रवीण'' और सुमित्र जी द्वारा संचालित एवं संयोजित"पाथेय " ने कई रचनाकारों को प्रकाशित किया , किंतु मुझे इस बात का मलाल सदा ही रहा है कि पठनीयता एवम कृति चर्चा जैसी बात अब समाप्त हो गयी है इस शहर से । खैर ये अन्य सभी शहरों में ऐसा ही होता है.....!
यदि आप पाथेय की कोई कृति प्राप्त करना चाहते हैं तो सम्पर्क कीजिए
राजेश पाठक "प्रवीण"
157,फूटा ताल,जबलपुर
फोन: 9827262605

13 जून 2008

बाप रे बाप .....! ये क्या ......?


भाई हिंद युग्म & कम्पनी वालो क्या ज़बरदस्त की पांचवीं किश्त जारी करनी पड़ी
जिसके प्रतिभागी ये सब
=> आकांक्षा यादव सी आर.राजश्री निखिल आनंद गिरि गीतिका भारद्वाज मनीषा वर्मा धर्म प्रकाश जैन मीना जैन अर्पित सिंह परिहार प्रमेन्द्र प्रताप सिंह श्रीमती पुष्पा राणा उत्पल कान्त मिश्रा विश्व दीपक 'तन्हा' कुमार मुकुल अवनीश गौतम अनिता कुमार
यानी अंतर्जाल पे हिंदी के इत्ते सारे दस्तख़त
यानी
मुझे सबको भागीदारी के लिए बधाई देना होगा
तो
"मेरी हार्दिक बधाइयां "

इस लिए भी कि युग्म को यहाँ =>दैनिक भास्कर सम्मान मिला

सुधि पाठकों , परिश्रमी लेखकों को भी लख लख बधाईयाँ

प्रतियोगिता:-

"गीत लिखिए" :-"ख़ुद से कैसे भाग सकेगा अंतस पहरेदार कड़क हैं"

इस मुखड़े पे गीत लिख भेजिए अन्तिम तिथि

=>30 जून 2008 से बढा कर 15 जुलाई 2008 कर दी गयी

है

email:- girishbillore@gmail।com अथवा girishbillore@hotmail।com नियमों की प्रतीक्षा कीजिए मुझे आपके एक गीत की प्रतीक्षा है अन्तिम तिथि तक प्राप्त गीत प्रकाशित कर दिए जाएंगे प्रकाशित गीतों पर विशेषज्ञों की राय,(गुणांक),तथा पाठकों की राय (गुणांक) के आधार पर विजेताओं की घोषणा कर दी जावेगी ! पुरूस्कार राशि के रूप में न होकर "...........................!" के रूप में होगा !!



12 जून 2008

महादेवी वर्मा

पूर्णिमा वर्मन जी की साधना को शत शत नमन जिनने महादेवी जी पर हिंदी में सामग्री उपलब्ध कराई है विक्की पीडिया पर
नीचे लिंक्स पर क्लिक कीजिए और जानिए महादेवी जी के बारे में
हिंदी साहित्य के विद्यार्थियों के लिए यह ज़रूरी सामग्री है।
१.१ जन्म और परिवार
१.२ शिक्षा
१.३ वैवाहिक जीवन
१.४ कार्यक्षेत्र
२ प्रमुख कृतियाँ
२.१ कविता संग्रह
२.२ महादेवी वर्मा का गद्य साहित्य
२.३ महादेवी वर्मा का बाल साहित्य
३ समालोचना
४ पुरस्कार व सम्मान
५ महादेवी वर्मा का योगदान
६ यह भी देखें
७ टीका-टिप्पणी
८ संदर्भ
८.१ ग्रन्थसूची
९ बाहरी कड़ियाँ

10 जून 2008

गीत लिखो प्रतियोगिता

गीत लिखो प्रतियोगिता की पहली प्रविष्टि भेजी है भाई विकास परिहार ने जिसे " प्रविष्ठियां "को क्लिक करके पढिए और अपना मत दर्ज कीजिए ,
यदि आप गीत कार हैं तो इक गीत यूनिकोड में टाइप कर भेजिए तुरंत

9 जून 2008

प्रेमगीत

बदल-बदल के लिबास पहनो,
जो दिल बदल दो तो वाह कर लूँ !!
#######
न तुम चुराओ नज़र कभी भी,
न कनखियों से निहारो मुझको !
मैं चाहता हूँ प्रिया सहज हो
जहाँ भी चाहो पुकारो मुझको !!
ये इश्क गरचे गुनाह है तो, है दिल की चाहत गुनाह कर लूँ...?
#######
कहो कि तुमको है इश्क़ हमसे
तो पहली बारिश में जा मैं भीगूँ,!
अगरचे तुम ने कहा नहीं कुछ
तो मैं ज़हर के पियाले पीलूँ !!
ज़हर को पीना गुनाह है तो,है दिल की चाहत गुनाह कर लूँ...?

5 जून 2008

हिन्द-युग्म: पहली कविता का पहला शतक

हिन्द-युग्म: पहली कविता का पहला शतक

पूरा हुआ पांचवीं किश्त आने को कोई रोक न सका ।


*** प्रतिभागी ये रहे =>
पूर्णिमा वर्मन कमला भंडारी आशीष जैन प्राजक्ता दिनेश पारते सुनीता यादव भूपेंद्र राघव हेमज्योत्सना पराशर राजीव रंजन प्रसाद गिरीश बिल्लोरे "मुकुल" तनु शर्मा श्याम सखा 'श्याम' बेला मित्तल तरुश्री शर्मा मेनका कुमारी संजीव कुमार बब्बर अरविंद चौहान सुनील डोगरा ’जालिम’ गीता मोटवानी पूजा उपाध्याय
इधर अपुन अपनी नेट गुरु पूर्णिमा वर्मन के साथ पधारे हैं ।
आज पर्यावरण दिवस पर सभी को हार्दिक शुभ काम नाएँ यानी आज से हम संकल्पित हैं कि हम घर,बाहर,इधर-उधर,यहाँ तक कि ब्लॉग'स के पर्यावरण को सही रखेंगें इस में मैं भी शामिल हूँ

2 जून 2008

प्रतियोगिता:-"गीत लिखिए"

इस मुखड़े पे
गीत लिख भेजिए:-"ख़ुद से कैसे भाग सकेगा अंतस पहरेदार कड़क हैं"
अन्तिम तिथि 30 जून 2008
email:- girishbillore@gmail.com
athava
girishbillore@hotmail.com

नियमों की प्रतीक्षा कीजिए