31 जुल॰ 2008

इश्मीत तुम्हारे साथ भारत के सपने गोता खा गए


सुना है कि पानी से डरते थे इश्मित भैया.....?
मम्मी,भगवान ने इश्मीत को किस बात की सज़ा दी ...?
पापा.....क्या भगवान का दिल इतना कठोर होता है....!
पापा अब कोई सपना किसी को लेकर मत देखना । सपने पूरे नहीं होते ।
मेरी बेटियों,भतीजियों ने खूब सवाल किए हमसे,पिछले साल इन्हीं बेटियों ने आभास के अलावा सभी भाइयों के लिए राखी भेजी थी।

इन संबंधों को कौन बनाता है

जो अपने पीछे छोड़ देतें हैं

इतने सवाल

मेरे पास केवल यही उत्तर था

"ॐ पूर्ण मिदं पूर्ण मिदा पूर्णात पूर्ण मुदच्यते पूर्णस्य पूर्ण मादाय: पूर्णमेवाहा: वशिस्य ते: !!"

बेहतरीन आवाज़ के धनी इश्मीत को अश्रूपूरित श्रद्धांजलि



आज जबलपुर का हर कला प्रेमी इश्मित के न होने का विश्र्वास नहीं कर पा रहा . आभास के कारण जबलपुर जुड़ा वाईस ऑफ़ इन्डिया से किंतु इश्मीत और हर्षित से जुड़ने की वज़ह सिर्फ़ और सिर्फ़ इन दौनों की ज़ोरदार परफोर्मेंस ही थी . इतना टैलेंट एक साथ कहाँ . आज इश्मीत के बिना रियलिटी शो से उभरे गायकों के मन में गहरा सदमा सभी देख रहें हैं . वी ओ आई एक का हर एपिसोड रोमांचकारी होता था. लेकिन प्रतियोगिता के बाद इस देश के अपने से हो गए ये बच्चे . इश्मित केवल सबके दिल में बस जाने वाला देवदूत था जिसे ईश्वर ने वापस बुला लिया.
आभास जोशी स्नेह मंच के राजेश पाठक,के शब्द थे :-"किसी माँ का लाल जो विश्व क्षितिज पे सितारे सा चमकने लगा हो का बिछोह वो माँ कैसे सहेगी वाहे गुरु उस माँ को शक्ति दे....!"
पंडित गोविन्द दुबे तो आज इस सितारे के अनंत में विलीन होने पे गहरे सदमें में देखे गए . ऐसे कई उदाहरण हैं. स्वयं आभास के पिता रविन्द्र जोशी अपने आप को सहज करने में असमर्थ दिखे और हों भी क्यों न इशमीत के साथ गुज़ारे कुछ दिन उनकी यादों से जो जुडें है.यही हाल आभास के चाचा यानी मेरे मित्र और भाई जितेन्द्र का है .
शोक के इस समय ईश्वर से उनकी आत्मा की शान्ति और परिवार को दु:ख सहने की क्षमता हेतु सभी जबलपुर वासी प्रार्थना रत है ..........................

हिंद युग्म से साभार http://podcast.hindyugm.com/2008/07/blog-post_517.html,लिंक पर , अलविदा इश्मित... विस्तृत रिपोर्ट पोस्ट की गई है

30 जुल॰ 2008

आभास अब फिल्मों में नज़र आएं तो कोई बड़ी बात नहीं







जबलपुर का प्रतिभा शाली आभास पूनम सिन्हा की पसंद हैं . इस बात की जान कारी सभी उसके साथियों को है.
पिछले दिनों शत्रु और रेखा को लेकर पूनम की फ़िल्म आज फ़िर जीने की तमन्ना है शुरू हुई तो ज्ञात हुआ की उसमे जैसे गवैये पुत्र की तलाश इस कहानी को है वो बात शायद आभास में देखी गई सूत्र बताते हैं की आभास ने आपने हिस्से की शूटिंग का आधे से ज़्यादा हिस्सा शूट करा लिया है. अब देखना की बॉक्स आफिस की तरफ़ आभास रेखा और शत्रु पूनम की किरणों की चमक के साथ कितना आकर्षित होते हैं दर्शक

29 जुल॰ 2008

इश्मित तुम लौट आओ




इश्मीत
तुम जो
विजेता हो
तुम जो भारत की आवाज़ हो
तुम छोड़ के हमें नहीं जा सकते
इश्मीत
तुम जो सुरों के रथ पे
"गीत" को बादशाह की तरह
ले आते थे....!!
सच तब देवता से लगते थे तुम
माँ,पापा और इस दुनियाँ
को छोड़ कर तुम
अपनी सुर संयोजना के
साथ अनंत में विलीन हो गए
मन बार बार कहता है

तुम लौट आओ
मेरे देवपुरूष तुम्हें मेरी विनत श्रद्धांजलि


ब्लॉगरस के लिए अधिनियम लाने की तैयारी आचार संहिता हेतु समिति का गठन होगा


सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार सरकार ब्लॉगस्पाट एवं अन्य साइट्स पर ब्लॉग लिखने वालों के प्रोत्साहन हेतु संसद में ब्लॉग अधिनियम लाने जा रही है . चूंकि ब्लागिंग एक अन्तरराष्ट्रीय विषय अतएव ब्लागवीरों की एक कमेटी का गठन किया जावेगा,कमेटी में सर्वाधिक टिप्पणी कराने वाले ब्लॉगर को शामिल किया जावेगा. किंतु अधिनियम के मसौदे पर विचार पूर्व ही इस बात को लेकर विवाद हो गया कि :- सर्वाधिक टिप्पणी पाने वालों को कमेटी का प्रधान बनाया जावे ,
बहरहाल जब आगे का हाल मुझे उक्त सूत्र दे रहा था कि मेरी पत्नी ने मुझे झिड़की देकर जगाया : देर रात तक ब्लागिंग करते हो सुबह आठ बजे तक सोते रहते हो , नौकरी का होश है कि नहीं ....
श्रीमती के दबाव में मुझे जागना पडा किंतु सत्य तो यह है की सपना टूटने का मुझे बेहद दर्द है।

तुम जो आईने को ...!!

तुम
जो आईने को अल्ल-सुबह मुँह चिढाती
फिर तोते को पढाती ....!
तुम
जो अलसाई आँखें धोकर
सूरज को अरग देतीं....!
मुझे वही तुम
नज़र आतीं रहीं दिनभर
घर लौटा जो ...
तुमको न पाकर लगा
हाँ ....!
तुम जो मेरी स्वप्न प्रिया हो
शायद मिलोगी मुझे आज
रात के सपने में ...!
उसी तरह जैसा मेरे मन ने
देखा था
"मुँह अंधेरे आए सपने में "
तुम
जो आईने को अल्ल-सुबह मुँह चिढाती
फिर तोते को पढाती ....!
तुम
जो अलसाई आँखें धोकर
सूरज को अरग देतीं....!
*गिरीश बिल्लोरे "मुकुल

26 जुल॰ 2008

"ये अजीब ब्राह्मण हैं....दहेज़ नहीं लेते ..!"

वर का पिता गाँव के स्नेहियों,परिजनों इष्ट मित्रों के साथ बारात लेकर आता है साथ ही वर पक्ष ग्यारह या तेरह वस्त्र जिसमें पुरूष वस्त्र [जो वधु के छोटे भाई के लिए होतें हैं],स्वर्णाभूषण,सूखे मेवे,ताजे-फल,वधु के लिए सम्पूर्ण श्रृंगार-प्रसाधन, लेकर आता है।
"इतना ही नहीं वर पक्ष आते ही वधु पक्ष के सम्मान का ध्यान भी रखता इस हेतु लाया जाता है गुलाब जल,इत्र,गुलाल,पान-सुपारी,वर का पिता अपने पुत्र,दामाद,बंधू-बांधवों के साथ वधु के परिजनों को सम्मानित करता है "
कुमकुम कन्या जौल्या [सफ़ेद रेशमी साड़ी] में लिपटी दुल्हन के हाथ गंगा जल के समान जल से भरे तांबे के पात्र में जिसे "गंगाल" कहा जाता है वर के हाथ में सौंप देता है वधु का पिता । तब पीला या हलके लाल रंग का अन्तर पट वैदिक मंत्रोच्चार के साथ खोल देतीं है सुवाएं यानी सौभाग्य वतियाँ ......ताम्रपात्र की गंगा की प्रतीकात्मक साक्ष्य में संपन्न होता है "पाणिग्रहण".....!
यानी कुल मिला कर विवाह परम्परा कामोबेश एक ही तरह की होती है। जैसा अन्य भारतीय हिंदू परिवारों में होता है तो "इन इन-ब्राहमणोंविवाह पद्धति" में नया क्या है...?
पाठको , इन ब्राहमणों में ठहराव कर वर बेचना आज भी अपराध है. जब हर जाति में दहेज़ का दावानल कई वधुएँ जला चुका हो इस समाज में इस बुराई को कोई स्थान नहीं है. नारी को इस समाज में दोयम दर्जा नहीं है. यदि दहेज़ है तो उसका स्त्रीधन स्वरुप आज भी बरकरार है.सौभाग्य से मुझे इस जाति में जन्म लेने का अवसर मिला मैं ईश्वर का कृतज्ञ हूँ . नार्मदेय-ब्राहमण-समाज नर्मदा के किनारे बसे ब्राहमण हैं जिनका धर्म सदाचार ही है वरना सभी जानते है मया महा ठगनी हम जानी "
पान तलाई के किसान श्री सुरेश जोषी जी कहतें है:-मुझे लगता है नार्मदेय ब्राहमण समाज जैसी विवाह परम्परा सर्वत्र हो तो सारा भारत स्वर्ग बन जाएगा ।

25 जुल॰ 2008

बैंगलुरू विस्फोट: अवनीश तिवारी की रचना

बंगलोर धमाके पर मेरी कुछ क्षणिकाएं -
१.
ये बंगलोर की घटना क्या है ?
अफजल की दुयाएँ ?
या संसद में मरे जवानों की बदुयाएं ?
जो भी हो सफल लगती है |
२.
सुना बंगलोर में धमाका हुया !
याद आया कल ही तो सरकार ने विश्वास जीता है, लोगों का
देर रात दावत के बाद सो रहे होंगे ,
धमाको से भी नही जागते ये |
३.
बंगलोर बम धमाके से
सरकार की धमाका की व्यौरा देने वाली पांडुलिपि ( डायरी ) भर गयी है ,
प्रधानमंत्री से नयी पाण्डुलिपि का आदेश दिया है ,
इस बार कुछ बड़ी और ज्यादा पन्नों वाली |

-- अवनीश तिवारी anish12345@gmail.com

24 जुल॰ 2008

उषाकिरण योजना पर भेंट वार्ता

आकाश वाणी जबलपुर से दिनांक 26/07/08 को विकास की बारह खड़ी के तहत मेरी भेंट वार्ता अपरान्ह 1:00 से 1:30 के मध्य प्रसारित की जावेगी। घरेलू हिंसा से प्रतिरक्षण हेतु लागू अधिनियम 2005 एवं नियम 2006 के सुचारू क्रियान्वयन हेतु लागू उषा किरण कार्यक्रम पर केंद्रित इस भेंट वार्ता का लाभ समस्त महिलाओं,शोध विद्यार्थियों,विधि छात्रों के साथ साथ सभी के लिए उपयोगी साबित हो सकेगी

22 जुल॰ 2008

मन मोहन संग रास-रस,अंग-अंग बस जाय!
अनुभव मत पूछो सखि ,मोसे कहो नै जाय !!
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देखूं तो प्रिय के नयन,सुनूं तो प्रिय के गीत !
हिय हारी मैं तुम कहो, तभी तो मोरी जीत !!
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मैं प्रियतम की बावरी,प्रीत रंग चहुँ ओर !
आया सावन बावला,देने पीर अछोर !!
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20 जुल॰ 2008

श्रीयुत काशीनाथ नाथ अमलाथे कृत नर्मदाष्टक विवेचन....!

यहाँ क्लिक कीजिए =>

संस्कार धानी के वयोवृद्ध श्रीयुत काशीनाथ अमलाथे की कृति नर्मदाष्टक विवेचन एवं गोत्र ऋषि परिचय का लोकार्पण स्वामी सत्य मित्रानंद गिरी जी ने किया

आज संजीव भाई की कहानी

आभार सहित : आरंभ Aarambha
पिता का वचन :
{छत्‍तीसगढ में बस्‍तर की वर्तमान परिस्थितियों पर मैंनें कलम चलाने का प्रयास किया है जो कहानी के रूप में यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं । आप सभी से इस कहानी के पहलुओं पर आर्शिवाद चाहता हूं :-संजीव तिवारी}
चूडियों की खनक से सुखरू की नींद खुल गई । उसने गहन अंधकार में रेचका खाट में पडे पडे ही कथरी से मुह बाहर निकाला, दूर दूर तक अंधेरा पसरा हुआ था । खदर छांधी के उसके घर में सिर्फ एक कमरा था जिसमें उसके बेटा-बहू सोये थे । बायें कोने में अरहर के पतले लकडियों और गोबर-मिट्टी से बने छोटे से कमरानुमा रसोई में ठंड से बचने के लिए कुत्ता घुस आया था और चूल्हे के राख के अंदर घुस कर सर्द रात से बचने का प्रयत्न कर रहा था । जंगल से होकर आती ठंडी पुरवाई के झोंकों में कुत्ते की सिसकी फूट पडती थी कूं कूं ।
सुखरू कमरे के दरवाजे को बरसाती पानी की मार को रोकने के लिए बनाये गये छोटे से फूस के छप्पकर के नीचे गुदडी में लिपटे अपनी बूढी आंखों से सामने फैले उंघते अनमने जंगल को निहारने लगा । अंदर कमरे से रूक रूक कर चूडियां खनकती रही और सिसकियों में नये जीवन के सृजन का गान, शांत निशा में मुखरित होती रही । सुखरू का एक ही बेटा है सुल्टू । कल ही उसने पास के गांव से गवनां करा के बेदिया को लाया है । इसके पहले उस कमरे में सुखरू और सुल्टूस का दो खाट लगता था और लकडी के आडे तिरछे खपच्चियों से बना किवाड हवा को रोकने के लिए भेड दिया जाता था । आज दिन में ही सुखरू नें लोहार से कडी-सांकल बनवा कर अपने कांपते हाथों से इसमें लगाया है । ‘बुजा कूकूर मन ह सरलगहा फरिका ल पेल के घुसर जथे बाबू ‘ सुल्टू के कडी को देखकर आश्चर्य करने पर सुखरू नें कहा था ।
रात गहराती जा रही थी पर सुखरू के आंख में नींद का नाम नहीं था, कमरे के अंदर से आवाजें आनी बंद हो गई । मंडल बाडा डहर से उल्लू की डरावनी आवाज नें सुखरू का ध्यान आकर्षित किया । ‘घुघवा फेर आ गे रे, अब काखर पारी हे ‘ उसने बुदबुदाते हुए सिरहाने में रखे बीडी और माचिस का बंडल उठाया और खाट में बैठकर पीने लगा, आंखों में स्वप्न तैरने लगे ।
बदरा को उसने गांव के घोटुल में पहली बार देखा था । टिमटिमाते चिमनी की रोशनी में बदरा का श्यामल वर्ण दमक रहा था । वस्त्र विहीन युवा छाती पर अटखेलियां करते उरोज नें सुखरू के तन मन में आग लगा दिया था । सामाजिक मर्यादाओं एवं मान्यता के अनुरूप सुखरू नें बदरा से विवाह किया था । रोजी रोटी महुआ बीनने, तेंदूपत्ता तोडने व चार चिरौजी से जैसे तैसे चल जाता था । हंसी खुशी से चलती जिंन्दगी में बदरा के सात बच्चे हुए, पर गरीबी-कुपोषण व बीमारी के कारण छ: बच्चे नांद नहीं पाये । सुल्टू में जीवन की जीवटता थी, घिलर-घिलर कर, कांखत पादत वह बडा हो गया । सल्फी‍ पीकर गांव मताने के अतिरिक्त सभी ग्राम्य गुण सुल्टूक नें पाये । सुखरू नें पडोस के गांव के आश्रम स्कूल में सुल्टू को पढाने भी भेजा पर वह ले दे कर आठवीं तक पढा और फेल हो कर मंडल के घर में कमिया लग गया । तीन खंडी कोदो-कुटकी और बीस आगर दू कोरी रूपया नगदी में । सुखरू और बदरा अपना अपना काम करते रहे ।
जमाना बदल रहा था, गांव में लाल स्याही से लिखे छोटे बडे पाम्पलेट चिपकने लगे, खाखी डरेस पहने बंदूक पकडे दादा लोगों का आना जाना, बैठका चालू हो गया । सुखरू अपने काम से काम रखता हुआ, दादा लोगों को जय-जोहार करता रहा । पुलिस की गाडियां भी अब गांव में धूल उडाती आने लगी । रात को गांव में जब उल्लू बोलता, सुबह गांव के किसी व्यक्ति की लाश कभी चौपाल में तो कभी जंगल खार में पडी होती । परिजन अपने रूदन को जब्ब‍ कर किरिया-करम करते, सब कुछ भूल कर अपने अपने काम पर लग जाते । कभी कभी जंगल में गोलियों की आवाजें घंटो तक आते रहती और रात भर भारी भरकम बूटों से गांव की गलियां आक्रांत रहती ।
शबरी के जल में भोर की रश्मि अटखेलियां कर रही थी । सूरज अपनी लालिमा के साथ माचाडेवा डोंगरी में अपने आप को आधा ढांपे हुए उग रहा था । सुखरू तीर कमान को अपने कंधे में लटकाये, जंगल में दूर तक आ गया था, बदरा भी पीछे पीछे महुआ के पेडों के नीचे टपके रसदार महुए को टपटपउहन बीनते हुए चल रही थी । ‘तड-तड धांय ‘ आवाज नें सुखरू के निसाने पर सधे पंडकी को उडा दिया । सुखरू पीछे मुडकर आवाज की दिशा में देखा । दादाओं और पुलिस के बीच जंगल के झुरमुट में लुकाछिपी और धाड-धाड का खेल चालू हो गया था । भागमभाग, जूतों के सूखे पत्तों को रौंदती आवाजें, झाडियों की सरसराहट, कोलाहल, शांत जंगल में छा गई । चीख पुकार और छर्रों के शरीर में बेधने का आर्तनाद गोलियों की आवाज में घुल-मिल गया । सुखरू नें कमर झुका कर बदरा को आवाज दिया ‘भागो ‘ , खुद तीर कमान को वहीं पटक गांव की ओर भागा ।
गांव भर के लोग जंगल की सीमा में सकला गए थे । गोलियों की आवाज की दिशा में दूर जंगल में कुछ निहारने का प्रयत्न करते हुए । दो घंटे हो गए बदरा बापस नहीं आई, गोलियों की आवाजें बंद हो गई । सुखरू का मन शंकाओं में डूबता उतराता रहा ।
शाम तक पुलिस की गाडियों से गांव अंट गया, जत्था के जत्था वर्दीवाले हाथ में बंदूक थामे उतरने लगे, जंगल को रौदने लगे । कोटवार के साथ कुछ गांव वाले हिम्मत कर के जंगल की ओर आगे बढे । जंगल के बीच में जगह जगह खून के निसान पेडों-पत्तों पर बिखरे पडे थे । दादा व पुलिस वालों की कुछ लाशें यहां वहां पडी थी । सुखरू महुए के पेड के नीचे झाडियों पर छितरे खून को देखकर ठिठक गया । झाडियों के बीच बदरा का निर्जीव शरीर पडा था । जल, जंगल-जमीन की लडाई और संविधान को मानने नहीं मानने के रस्‍साकसी के बीच चली किसी गोली नें बदरा के शरीर में घुसकर बस्तर के जंगल को लाल कर दिया था ।
सुखरू सिर पकड कर वहीं बैठ गया । लाशों की गिनती होने लगी, पहचान कागजों में दर्ज होने लगे। लाशों को अलग अलग रखा जाने लगा, साधु-शैतान ? ‘और ये ?’ रौबदार मूछों वाले पुलिस अफसर नें कोतवाल मनसुखदास से पूछा । ‘बदरा साहेब’ ‘मउहा बीनत रहिस’ कोटवार नें कहा । ‘दलम के साथ’ साहब नें व्यंग से कहा । कोतवाल कुछ और कहना चाहता था पर साहब के रौब नें उसके मुह के शव्द को मुह में ही रोक दिया । ‘कितने हैं ?’ साहब नें लाश को रखने वालों से पूछा । सर हमारे चार और नक्सोलियों के तीन ।‘ ‘... ये महिला अलग ।‘
सुखरू के आंसू बहते रहे, बुधिया की लाश पुलिस गाडी में भरा के शहर की ओर धूल उडाती चली गई । अंगूठा दस्तोखत, लूट खसोट के बाद आखिर चवन्नी मुआवजा मिला, बोकरा कटा, सल्फी व मंद का दौर महीनों चलता रहा । धूल का गुबार उठा और बस्तर के रम्य जंगल में समा गया । बुधिया की याद समय के साथ धीरे-धीरे सुखरू के मानस से छट गई । सुल्टू साहब लोगों के एसपीओ बनने के प्रस्ताव को ठुकराकर मंडल के खेतों में लगन के साथ मेहनत करने लगा । सुखरू मदरस झार के शहर में जा जा कर बेंचने लगा, जीवन की गाडी धीरे से लाईन पर आ गई ।
सुखरू नें पडोस के गांव से मंगतू की बेटी को अपने बेटे सुल्टू के लिए मांग आया, अपनी सामर्थ और मंडल के दिये कर्ज के अनुसार धूम धाम से बिहाव-पठौनी किया, मुआवजा का पैसा तो उसने मंद में उडा दिया था । सुखरू के स्मृति पटल पर चलचित्र जैसे चलते इन यादों के बीच उसकी नींद फिर पड गई ।
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जंगल की ओर से आती बूटों की आवाजों को सुखरू परखने की कोशिस करने लगा । आवाजें उसके खाट के पास ही आकर बंद हो गई । वह गुदडी से अपना सिर बाहर निकाला, सामने स्याह अंधेरे में दो-चार-दस, लगभग सौ बंदूकधारी सिर खडे थे । सुखरू कांपते पैरों को जमीन में रखते हुए हडबडा कर खाट से उठा । दोनों हाथ जोडते हुए कहा ‘जोहार दादा’ । बंदूक वाले नें सुखरू की बात को अनसुना करते हुए अपने लोगों से बोला ‘बाहर निकालो उसे ‘ सुखरू की रूह कांप गई, वह गिडगिडाने लगा । ‘का गलती होगे ददा’ । साथ में आये दो लोगों नें जर्जर दरवाजे को कंधे से धक्का, मारा । दरवाजा फडाक से खुल गया, सुल्टू और बहु हडबडा कर उठ गये । वो कुछ समझ पाते इसके पहले ही सुल्टू की गर्दन और बहू के बाल को पकडकर लगभग खींचते हुए घर से बाहर लाया गया । तीनों की कातर पुकार जंगल में प्रतिध्वनित होने लगी । ‘धाय ‘ भरमार बंदूक नें आग का गोला उगला । सुल्टू की चीख बाहर निकलते हुए हलक में ही जब्ब हो गई ।
खून जमा देने वाली ठंड में सुखरू के अंग के रोमछिद्रों नें जमकर पसीना उडेल दिया, उसने आंखें खोलकर आजू बाजू देखा । कोई भी नहीं था, सियाह काली रात, छाती धौंकनी की तरह चल रही थी । उसने खाट से उतर कर सुल्टू के कमरे के दरवाजे को टमड कर देखा, दरवाजा साबूत भिडा हुआ था । ‘सुल्टू , बेटा रे ‘ उसने बेहद डरे जुबान से आवाज दिया, शव्द मुह से बमुश्कल बाहर आये । रसोई में सोया कुत्ता उठकर सुखरू के पांव पर कूं कूं कर लोटने लगा । सुखरू की आंखें अब अंधेरे में कुछ देख सकने योग्य हो गई थी, हिम्मत कर के फिर बेटे को आवाज लगाई । सुल्टूट नें अंदर से हुंकारू भरी, सुखरू के जान में जान आई । ‘ का होगे गा आधा रात कन काबर हूंत कराथस’ सुल्टू नें कहा । ‘कुछु नहीं बेटा सुते रह, सपना देख के डेरा गे रेहेंव बुजा ल’ ‘.... रद्दी सपनाच तो आथे बेटा, बने सपना त अब नंदा गे । दंतेसरी माई के सराप ह डोंगरी, टोला जम्मो म छा गे हे, बुढवा देव रिसा गे हे बेटा ....’ सुखरू बुदबुदाने लगा फिर आश्वस्थ हो खाट में बैठ कर बीडी पीने लगा । गोरसी में आग जलाई और आग तापने लगा । कमरे में चूडियां फिर खनकने लगी, कुत्ता कूं कूं कर गोरसी के पास आकर बैठ गया । आग तापते हुए बूढी आंखों में अभी अभी देखे स्वप्न के दृश्य छाये रहे । दिमाग ताना बाना बुनता रहा । मुर्गे नें बाग दिया डोंगरी तरफ से रोशनी छाने लगी ।
सुल्टू अपने कमरे से उठकर कमजोर पडते गोरसी पर लकडी डालते हुए बाप के पास आकर बैठ गया । ‘बेटा अब तुमन अपन ममा घर रईपुर चल देतेव रे, उन्हें कमातेव खातेव । इंहा रहई ठीक नई ये बुजा ह ।‘ सुखरू नें गोरसी के आग को खोधियाते हुए कहा । ‘ सरी दुनिया दाई ददा तीर रहि के सेवा करे के पाठ पढाथे, फेर तें ह कईसे बाप अस जउन हमला अपन ले दुरिहाय ले कहिथस’ सुल्टू अनमने से बात को सामान्य रूप से लेते हुए कहा । ‘बेटा दिन बहुर गे हे, तें ह एसपीओ नई बनेस जुडूम वाले मन खार खाये हें, दादा मन तोर दाई के जी लेवईया संग लडे ल बलावत हें, उहू मन गुसियावत हें । गांव के गांव खलक उजरत हे, सिबिर में गरू-बछरू कस हंकावत हें । कोनो दिन बदरा जईसे हमू मन मर खप जबो, काखर बरछा, काखर गोली के निरवार करबो । तुमन जीयत रहिहू त मोर सांस चलत रहिही बेटा ।‘ सुखरू का गला रूंध आया, आगे वह कुछ ना बोल सका ।
सुल्टूल अपना गांव, घर, संगी-साथी को छोडने को तैयार नहीं पर बाप की जिद है । उसने चार दिन से कुछ भी नहीं खाया है, खाट पर टकटकी लगाए जंगल की ओर देख रहा है । ‘... मान ले बेटा ।‘ सुखरू सुल्टू के हाथ को पकड कर उसने पुन: निवेदन किया । बाप की हालत को देखकर सुल्टू बात टालने के लिए कहता है ‘तहूं जाबे त जाबोन’ । सुखरू के आंखों में बुझते दिये की चमक कौंधती है और हमेशा हमेशा के लिए बुझ जाती है ।
शबरी में तर्पण कर सुल्टू डुबकी लगाता है, नदी को अंतिम प्रणाम करता है । लोहाटी संदूक में ओढना कुरथा को धर कर अपनी नवेली दुल्हन के साथ शहर की ओर निकल पडता है । माचाडेवा डोंगरी से खिलता हुआ सूरज गांव को जगमगाने लगा है । इंद्रावती में मिलने को बेताब शबरी कुलांचे भरती हुई आगे बढ रही है ।
सुल्टू पीछे-पीछे आते कुत्ते को बार बार भगाता है, पर कुत्ता दुतकारने – मारने के बाद भी थोडी देर बाद फिर सूल्टू के पीछे हो लेता है । सुल्टू के श्रम से लहराते खेत पीछे छूटते जाते हैं, सुल्टू के मन में भाव उमड घुमड रहे हैं । पिता के वचन के बाद लिये अपने फैसले से वह आहत है, क्या उसे शहर रास आयेगा ? यदि नहीं आया तो .... वह अपने गांव में फिर से वापस आ तो सकता है । बस में जाते हुए रास्‍तें में वह कई उजडे गांवों का नाम बुदबुदा रहा है । क्‍या सुखरू का स्वप्न आकार लेकर उसके गांव में भी चीत्कार के रूप में छा जायेगा और सारा गांव भुतहा खंडहरों और जली हुई झोपडियों में तब्‍दील हो जायेगा ? तब क्‍या वह गांव वापस लौट पायेगा ।
संजीव तिवारी

18 जुल॰ 2008

ज़िंदगी

रोज़ स्याह रात कभी माहताब जिन्दगी
एक अरसे से मुसलसल बारात ज़िन्दगी
बाद मुद्दत के कोई दोस्त मिले
तबके उफने रुके ज़ज्बात ज़िन्दगी
तेरा बज्म...! मैं बेखबर तू बेखबर
एक ऐसी सुहागे रात ज़िन्दगी
बाद मरने के सब गुमसुम बेचैन दिखें
धुंए के बुत से मुलाक़ात ज़िन्दगी .

12 जुल॰ 2008

संगीत प्रेमियों कुछ कहना हो ब्लॉगर मीत से कह दीजिए

मीत

मीत जी का एतिहासिक ब्लॉग है इस ब्लॉग में वो सब कुछ है जो आज हम सब खोजते हैं । भारतीय संगीत को अन्तर जाल पे सजा कर समेकित करने वाले मीत जी यूनुस खान ,के पर्याय इस लिए नहीं कहे जा सकते की इन दौनों के बिना समेकन [एग्रीगेशन] कदाचित अधूरा होगा। सुर-संगीत से भरा मीत के ब्लॉग को पॉँच सितारा ब्लॉग कहा जा सकता है
अनिल बिस्वास (2)
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अहमद फ़राज़ (1)
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ग़ज़ल (16)
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गीता दत्त (1)
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गै़र फ़िल्मी गीत (24)
जगमोहन (1)
जयदेव (1)
जाँ निसार अख्तर (1)
जावेद अख्तर (1)
जिगर मुरादाबादी (1)
तलत महमूद (4)
दुष्यंत कुमार (2)
नीरज (1)
नुसरत फ़तह अली खा़न (2)
नूरजहाँ (1)
नैय्यरा नूर (1)
नज़्म (12)
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8 जुल॰ 2008

विरह वेदना....!!




विरहन के मन की व्यथा, बांच सके तो बांच .!
मन रीता ज्यों गागरी,चुभता संयम कांच !!
चुभता संयम कांच देह अदेह सरीखी
पिय बिन लागे मिसरी मोहे मिरच सी तीखी !
विरहा अगन लगाय कित छुप गए का जानूं...?
पियु तुमको पदचाप से ही मैं पहचानूं .
कहें मुकुल कवि प्रीत प्रभू से करौ जा रीति
सब पथ कंटक पूर्ण,प्रीत पथ सहज है नीति
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7 जुल॰ 2008

स्व.भूपेन्द्र कौशिक " फ़िक्र"

फ़िक्र साहब से स्वतंत्र मत के लिए साक्षात्कार लिया था शायद 1999-2000 में उसे सम्हाल के रखा गया
उनके पौत्र ने

स्वर्गीय भूपेन्द्र कौशिक ''फ़िक्र'' साहब



भूपेंद्र कौशिक '' फ़िक्र' जी जबलपुर तीखे व्यंग्य कार थे । उनके जीवन में भी उतनी बेबाकी ताउम्र उनके साथ रही मैंने कभी उनका साक्षात्कार लिया था स्वतंत्र मत अखबार के लिए उस अखबार की यह कटिंग उनके पौत्र यानि कि निशांत कौशिक ने उपलब्ध कराई निशांत दादा जी के बड़े ही चहेते रहें हैं उनके ब्लाग'स ये रहे


फ़िक्र साहब की एक कविता
शहर में बहुत से विद्वान हैं
मुंह में बहुत से दांत हैं
शहर में विद्वान न हों
मुंह में दांत न हों
तो अजगर का आकार बनता है
अजगर अंधकार का प्रतीक है
अन्धकार जो सूरज को भी निगलता है
अंधकार जिस के पेट में रौशनी कि हड्डियाँ टूटती हैं
इन हड्डियों के टूटने कि आवाज सारा शहर सुनता है
और जो भी अपने आप को ज़रा भी विद्वान समझता है
वह अपने ही पेट में इस आवाज को महसूस करता है
पेट का भय ही सबसे बड़ा भय है
इस भय के कारण ही
सबके अपने अपने अहाते बन गए हैं
जो भी अपने अहाते में है
विद्वान है
यह काम बहुत आसान है
हर चौराहे पर नकली दांतों कि दुकान है
आज सारा शहर विद्वान है