28 अग॰ 2012

रूस,चीन और इस्राइल : डैनियल पाइप्स


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हाल के दो घटनाक्रम ‌–व्लादिमिर पुतिन की हाल की मध्य पूर्व की यात्रा और चीन की सरकार द्वारा इजरायल के कार्गो रेलवे प्रकल्प को आर्थिक सहायता दिया जाना इस क्षेत्र में गठबन्धनों के नये समीकरणों की ओर संकेत देते हैं।
मध्य पूर्व का प्रमुख शास्वत विभाजन अब अरब इजरायल पर आधारित होने के स्थान पर इस्लामवाद और गैर इस्लामवाद पर आधारित हो गया है जिसमें कि ईरान एक कोने पर है तथा इजरायल दूसरे कोने पर है शेष अन्य राज्य इनके मध्य कहीं हैं। यह बहुआयामी गठबंधन है जिसमें कि उदाहरण के लिये तेहरान में इस्लामवादी और अंकारा में क्रांतिकारी एक दूसरे के विरुद्ध हैं जबकि तेहरान और दमिश्क का ध्रुव जिस मात्रा में फल फूल रहा है वैसा पहले कभी नहीं था।
रूस और चीन की कार्रवाई इस बात की ओर संकेत करती है कि इन गठबंधनों ने बाहरी शक्तियों की विदेश नीति को भी आकार देना आरम्भ कर दिया है। जहँ एक ओर यूरोपियन संघ और अमेरिकी सरकार धीरे धीरे इस्लामवाद के प्रति सहानुभूति बढाते चले जा रहे हैं और इसे अपनी ही मुस्लिम जनसंख्या को नियन्त्रित रखने का मार्ग मानकर चल रहे हैं तो मास्को और बीजिंग का अपनी मुस्लिम जनसंख्या के साथ संघर्ष का पुराना इतिहास रहा है और इसी कारण वे मध्य पूर्व में इस्लामवाद के विरुद्ध नीति अपना रहे हैं।
इसी कारण रूस महासंघ के राष्ट्रपति की यात्रा के बाद पिन्हास इन्बारी ने लिखा कि क्या इजरायल और रूस निकट आ रहे हैं? " अपनी यात्रा का आरम्भ इजरायल से करने का निर्णय और वह भी लम्बे चौडे प्रतिनिधिमंडल के साथ इस बात का संकेत करता है कि उनकी यात्रा का ध्यान इजरायल पर था जबकि फिलीस्तीन अथारिटी और जार्डन का द्वितीयक मह्त्व था" । ऐसा इसलिये है कि सीरिया और ईरान के मामले में दोनों देशों के मध्य भारी मतभेद होते हुए भी दोनों देश दूसरे मसलों पर एकमत हैं जो कि कम मह्त्व के नहीं हैं और मध्य पूर्व में राजनीतिक वातावरण को प्रभावित कर रहे हैं जिसमें कि सबसे बडी चिंता मुस्लिम ब्रदरहुड का सत्ता में आना है"
इन्बारी का कहना है कि पुतिन की यात्रा ओबामा की अनेक यात्राओं की प्रतिकृति थी कि पवित्र स्थल की यात्रा और उसके बाद नेतन्याहू की फिलीस्तीनी कूटनीति का समर्थन।
वे समापन करते हुए कहते हैं:
किसी को इस भ्रम में नहीं आना चाहिये कि इजरायल और रूस अत्यन्त घनिष्ठ मित्र बन गये हैं और रणनीतिक घटक बन गये हैं । दुख की बात है कि इस क्षेत्र में रूस के सबसे अच्छे मित्र दुष्ट राज्य ईरान और सीरिया हैं। फिर भी मुस्लिम ब्रदरहुड के अग्रसर होने और इसका अमेरिका द्वारा स्वागत किये जाने के बाद इजरायल और रूस परस्पर निकट आये हैं।
इसी प्रकार आज का चीन का समझौता भी इसी श्रेणी में आता है। इजरायल और चीन ने आज एक ऐतिहासिक सहयोग समझौते पर ह्स्ताक्षर किये जिसके अंतर्गत ईलाट रेलवे और भविष्य के कुछ अन्य प्रकल्प पर सहमति बनी जिसमें ईलाट के उत्तर में इनलैण्ड नहर बन्दरगाह है……… इस प्रकल्प का प्रमुख बिंदु एक कार्गो रेल लाइन का निर्माण है जो कि इजरायल के भूमध्यसागर के अशदोद और हायफा बंदरगाह को ईलाट बंदरगाह से जोडेगा। इसके अतिरिक्त इस बात की योजना भी है कि जार्डन के अकाबा बंदरगाह तक इसे बढाया जाये। ( इजरायल के सूत्र बताते हैं कि चीन इस प्रकल्प को अत्यंत महत्व का मानता है क्योंकि यह चीन की वैश्विक रणनीति के अंतर्गत आता है जिससे कि मह्त्वपूर्ण व्यापार मार्ग पर पकड रहे । आज चीन सरकार द्वारा रात्रिभोज में इजरायल का प्रनिधिमंडल विशेष अतिथि होंगे। भोजन भी कोशेर ही होगा।
 डैनियल पाइप्स
3 जुलाई, 2012
हिन्दी अनुवाद - अमिताभ त्रिपाठी
नोट इस आलेख से ब्लाग संचालक की सहमति असहमति नहीं है. केवल अंतर्राष्ट्रीय दृश्यों को जानने की ललक मात्र है.. 

27 अग॰ 2012

फिल्म पत्रकारिता या पीआर पत्रकारिता पर बड़ी बहस फिल्म पत्रकारिता, पीआर पत्रकारिता नहीं - अजय ब्रह्मात्मज

मुंबई. फिल्म के पत्रकार फ़िल्मी सितारों से सवाल करते हैं और वे उनका जबाव देते हैं. लेकिन मुबई प्रेस क्लब में  'फिल्म पत्रकारिता या पीआर पत्रकारिता' पर परिचर्चा के दौरान मामला उलटा था. फ़िल्मी दुनिया की खबर पहुँचाने वाले पत्रकार वक्ता के रूप में थे. उनसे सवाल पूछे जा रहे थे और बीच में कोई पीआरओ नहीं था. गरमागरम बहस हुई और कुछ स्वीकारोक्तियां भी. फिल्म पत्रकारों ने अपना पक्ष भी रखा और बॉलीवुड, पीआर और फिल्म पत्रकारिता के बीच के संबंध और मजबूरियों पर बेबाकी से बातचीत भी की.  
                                    दैनिक जागरण के मुंबई ब्यूरो प्रमुख और वरिष्ठ फिल्म पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज ने पहले वक्ता के रूप में परिचर्चा की शुरुआत करते हुए फिल्म पत्रकारिता के लिए पीआर पत्रकारिता जैसे शब्द पर ऐतराज जताते हुए कहा कि  इस विषय पर पहली बार चर्चा हो रही है और फिल्म पत्रकारिता के लिए पीआर पत्रकारिता जैसे शब्द का इस्तेमाल हो रहा है. लेकिन सोशल मीडिया के ज़माने में फ़िल्मी सितारों को किसी पीआर की जरूरत नहीं. वे अपनी बात ट्विट्टर - फेसबुक के माध्यम से कह देते हैं. इस लिहाज से फिल्म पत्रकारों की भूमिका सिमट रही है और उन्हें किसी पीआरओ की जरूरत नहीं. स्टार्स अलग - अलग माध्यम से पाठकों - दर्शकों से सीधे बातचीत कर रहे हैं. सोशल नेटवर्किंग साईट के अलावा अख़बारों के संपादक बनकर और न्यूज़ चैनलों के न्यूज़ रूम में पहुंचकर वे अपनी बात टार्गेट सिनेप्रेमियों तक पहुंचा रहे हैं. पीआर जर्नलिज्म का जहाँ तक सवाल है तो यह कोई नयी बात नहीं. कई साल से पीआर जर्नलिज्म चल रहा है. वैसे यह पीआर जर्नलिज्म तो पॉलिटिकल जर्नलिज्म में भी चल रहा है. लेकिन उसपर इस तरह से सवाल नहीं खड़े किए जाते. लेकिन आमिर खां पत्रकारों को बुलाकर इंटरव्यू देते हैं तो उसे पीआर करार दिया जाता है. 
                            लेकिन वित्तीय मामलों के विशेषज्ञ और दो भोजपुरी फिल्मों के निर्माता कवि कुमार ने फिल्म निर्माताओं का पक्ष रखते हुए सवाल उठाया कि फिल्म पत्रकारिता पीआर पत्रकारिता नहीं है तो छोटी फिल्मों को मीडिया कवरेज क्यों नहीं मिलता. उन्होंने सवालिया अंदाज़ में कहा कि उनकी फिल्म पांच करोड़ रुपये की है. उनकी फिल्म को भी मीडिया कवरेज मिलनी चाहिए. लेकिन नहीं मिलेगी. क्योंकि पीआर के लिए मेरा इतना बजट नहीं है. मीडिया 'कॉकटेल' और 'एक था टाइगर' और जोकर जैसी बड़े बजट और बड़े सितारों की फिल्मों को ही प्रोमोट करेगी. फिर हम जैसे कम बजट वाले फिल्म निर्माता अपनी फिल्मों को कब रिलीज करेंगे और हेमन मीडिया कवरेज कब मिलेगा. क्या यह पीआर पत्रकारिता नहीं है?  
               लेकिन बॉलीवुड हंगामा के पत्रकार 'फरीदून' ने फिल्म पत्रकारों पर पीआर पत्रकारिता करने के आरोपों को ख़ारिज करते हुए कहा कि यदि ऐसा होता है तो आरोप लगाने वालों को उसका प्रूफ भी देना चाहिए. फिल्म पत्रकारिता में आजकल क्रिटिक को पसंद नहीं किया जाता. कई बार धमकी भी मिलती है कि आप ज्यादा क्रिटीसाइज करेंगे तो आपको बुलाएँगे ही नहीं. फिल्म पत्रकारिता में प्रेस विज्ञप्ति आती है ,उसे छापा भी जाता है और उसमें कोई बुराई भी नहीं. लेकिन उस
 में पत्रकार का अपना ओपिनियन भी होना चाहिए. यदि ऐसा नहीं होता तो उसे पीआर पत्रकारिता कह सकते हैं.

एनडीटीवी इंडिया के 'इकबाल परवेज' ने कुछ हटकर बोलते हुए कहा कि सलमान खान तीन घंटे देर से प्रेस कॉन्फ्रेंस में आते हैं. पत्रकार नाराज़ होते हैं तो सलमान कहते हैं कि किसने कहा कि मेरा इंतजार कीजिये और उसके बाद भी पत्रकार उनका इंटरव्यू लेते हैं. ऐसे में पत्रकार और निरीह होते हैं और पीआर की भूमिका बढ़ जाती है.  फ़िल्मी सितारे देर से आयेंगे और पत्रकार उनका इंतज़ार करेंगे. फ़िल्मी पत्रकारों की यही नियति है. प्रतिरोध नहीं करने का खामियाजा तो उठाना ही पड़ेगा. पीआर को हावी होना ही है.
टीवी9 के इंटरटेनमेंट हेड पंकज शुक्ला ने सोशल नेटवर्किंग साईट के माध्यम से अपनी बात रखते हुए कहा कि फिल्म पत्रकारिता और पीआर में बहुत बारीक अंतर है. तमाम फिल्म पत्रकार नौकरी करते हुए भी पेड पीआरओ का काम करते रहे हैं, वहीं तमाम फिल्म पत्रकार ऐसे भी रहे हैं जिन्होंने ऐसा मौका सामने आने पर पहले पत्रकारिता छोड़ी फिर पीआरओ बने. कुछ फिल्म पत्रकार ऐसे भी हैं जिनका बतौर पेड पीआर एकमात्र काम अपने परिचित फिल्मकारों के आसपास चाटुकारों की फौज जमा करना है. मेरा तो मानना है कि फिल्म समीक्षाएं जब से फिल्म की मार्केटिंग का हिस्सा बनी हैं, इनकी सामयिकता करीब करीब खत्म हो गई है. अगर किसी समीक्षक को इस बात पर गर्व होता है कि शनिवार या रविवार के फिल्म विज्ञापन में उसके दिए स्टार्स का ज़िक्र हुआ तो ये सोचने वाली बात है कि क्या सिर्फ इस विज्ञापन में अपना नाम देखने के लिए स्टार्स तो नहीं दिए जा रहे. 
मिला-जुलाकर चर्चा जीवंत रही. एक अनछुए विषय पर चर्चा हुई और फिल्म के पत्रकार खुल कर बोले. यह परिचर्चा मीडिया खबर.कॉम द्वारा प्रेस क्लब ऑफ़ मुंबई में आयोजित किया गया था. 
(मुंबई से संगीता ठाकुर की रिपोर्ट)

क्या बगदाद बाब तेहरान चले गये?


2003 में अमेरिका नीत आक्रमण के दौरान अमेरिका के रिपोर्टरों ने इराक के सूचना मंत्री को " "बगदाद बाब' का नाम दिया था ( ब्रिटिश उन्हें कोमिकल अली कहते थे) । वे अपनी नियमित प्रेस वार्ता में गलत प्रचार करते हुए इराकी सेना की प्रशंसा करते और शानदार कहानियाँ सुनाते कि उन्होंने किस प्रकार विदेशी आक्रमणकारियों को कुचल दिया जबकि वही आक्रमणकारी पर्दे पर उनकी ओर बढते नजर आते थे।
लगता है कि अब ईरान के ब्रिगेडियर जनरल ने बाब को आत्मसात कर लिया है। हाल के दो उद्धरण ( कुछ अंग्रेजी अनुवाद में सम्पादन के साथ) :
  • इस्लामिक रिवोल्यूशन गार्ड्स कार्प्स के लेफ्टिनेंट कमान्डर ब्रिगेडियर जनरल हुसैन सलामी, " आई आर जी सी कभी भी अमेरिका की मिसाइलों की गडगडाहट और परा क्षेत्रीय शत्रुओं सहित इनके वायुयानों की विशालता से भयभीत नहीं हुआ उनकी दृष्टि में ये उपकरण बेकार के लोहे से अधिक कुछ नहीं है"
  • रक्षा मंत्री ब्रिगेडियर जनरल अहमद वाहिदी ने सीरिया में अभी हाल में मारे गये अपने पूर्ववर्ती के स्थान पर ब्रिगेडियर जनरल बनने वाले साथी से टेलीफोन वार्ता में कहा जो कि इस्लामी गणतंत्र की समाचार सेवा द्वारा जैसा बताया गया, " ईरान को पूरा विश्वास है कि सीरिया की शक्तिशाली सुरक्षा व्यवस्था अमेरिका, इसके क्षेत्रीय सहयोगियों और इजरायल को इस क्षेत्र को लेकर पाली गयी महत्वाकाँक्षाओं से पीछे हटने को विवश कर देगी। उन्होंने कहा कि इजरायलवादी शासन और आतंकवादी सीरिया की सेना की शक्तिशाली इच्छा को प्रभावित नहीं कर सकते तथा सीरिया में मनोवैज्ञानिक कार्रवाई से इजरायल के लिये सशक्त भूमिका नहीं तैयार कर सकते" ।
टिप्पणियाँ :
(1) यह आशा करनी चाहिये कि टिप्पणियों में गम्भीरता और विश्वास न हो क्योंकि जैसा किThe Causes of War में ज्योफ्री ब्लेनी ने विश्वासपूर्वक तर्क दिया है कि अतिशय आशावाद युद्ध का कारण बनता है, " सामान्य तौर पर युद्ध का आरम्भ तब होता है कि जब दो देश अपनी अपेक्षाकृत शक्ति पर असहमत होते हैं और यह तब समाप्त होता है कि जब वे इस पर सहमत हो जाते हैं" ।
(2) यदि इन पर गम्भीरता से विश्वास न भी किया जाये तो भी ऐसे दावों की अपनी भूमिका है और कभी कभी इनके दुखद परिणाम होते हैं। ( 19 जुलाई, 2012)
डैनियल पाइप्स
मौलिक अंग्रेजी सामग्री: Has Baghdad Bob Moved to Tehran?हिन्दी अनुवाद - अमिताभ त्रिपाठी

25 अग॰ 2012

सीरिया में युद्ध समाप्त होने की प्रतीक्षा करें


16 अग॰ 2012

बुद्धि जो "स-तर्क" होती है

साभार : जनोक्ति
मानव जीवन के सर्व श्रेष्ट होने के लिये जिस बात की ज़रूरत है वो सदा से मानवीय भावनाएं होतीं हैं. किंतु आज के दौर में जीवन की श्रेष्ठ्ता का आधार मात्र बुद्धि और तर्क ही है न कि हृदय और भावनाएं.....!!
जो व्यक्ति भाव जगत में जीता है उसे हमेशा कोई भी बुद्धि तर्क से पराजित कर सकता है. इसके सैकड़ों उदाहरण हैं.
बुद्धि के साथ तर्क विजय को जन्म देते हैं जबकि हृदय भाव के सहारे पाप-पुण्य की समीक्षा में वक्त बिता कर जीवन को आत्मिक सुख तो देता है किंतु जिन्दगी की सफ़लता की कोई गारंटी नहीं...
जो जीतता है वही तो सिकंदर कहलाता है, जो हारता है उसे किसने कब कहा है "सिकंदर"
आज़ के दौर को आध्यात्म दूर करती है बुद्धि जो "स-तर्क" होती है यानि सदा तर्क के साथ ही होती है और जीवन को विजेता बनाती है, जबकि भावुक लोग हमेशा मूर्ख साबित होते हैं.जीवन है तो बुद्धि का साथ होना ज़रूरी है. सिर्फ़ भाव के साथ रिश्ते पालने चाहिये. चाहे वो रिश्ते ईश्वर से हों या आत्मीयों से सारे जमाने के साथ भावात्मक संबन्ध केवल दु:ख ही देतें हैं. भावात्मक सम्बंध तो हर किसी से अपेक्षा भी पाल लेतें हैं अपेक्षा पूर्ण न हो तो दु:खी हो जाते हैं. जबकि ज़रूरी नहीं कि आपसे जुड़े सारे लोग आपके ही हों ?
आप मैं हम सब जो भावों के खिलाड़ी हैं .... बुद्धि का सहारा लें तो हृदय और जीवन दोनों की जीत होगी 

13 अग॰ 2012

गुप्तचर बनाम गुप्तचर , अमेरिका बनाम इजरायल



                                इजरायल के लोग अमेरिका की गुप्तचरी कर रहे हैं यह बात एक बार फिर समाचारों में है :यहूदी राज्य के नेताओं ने अभी हाल में जोनाथन पोलार्ड की रिहाई का अनुरोध किया है तथा एसोसियेटेड प्रेस ने अत्यन्त चेतावनीपूर्वक इस बात की सूचना दी है कि अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा के अधिकारी इजरायल को " एक सही खुफिया प्रतिरोध खतरा" स्वीकार करते हैं। इस आक्रोश से तो यही प्रतीत होता है मानों कहा जा रहा है: उनका ऐसा करने का साहस कैसे हुआ! वे अपने आप को क्या समझते हैं?
परंतु सहयोगियों की गुप्तचरी करना चलन में है, यह दोतरफा सडक है। बहुत अधिक इसमें उलझने से पूर्व अमेरिका को भी समझना चाहिये कि वाशिंगटन भी निर्दोष नहीं है। रीगन से लेकर ओबामा तक अमेरिका की सरकारों ने इजरायल के विरुद्ध गुप्तचरी के बडे स्तर पर प्रयास किये हैं। उदाहरण के लिये:
इजरायल की सेना खुफिया शाखा में एक पूर्व मेजर योसेफ अमित ने सी आई ए के लिये वर्षों तक गुप्तचरी की, 1986 में गिरफ्तार होने तक लेबनान के प्रति नीति और सेना की गतिविधि पर अपना ध्यान केंदित कर यह कार्य किया ।
  • 1993 से 96 तक वाशिंगटन में इजरायल के राजदूत इतामार राबिनोविच ने रहस्योद्घाटन किया कि उनके कार्यकाल में अमेरिका की सरकार ने इजरायल के कूटवाक्य को खोज लिया था और , " अमेरिका दूतावास की नियमित फोनलाइन को निश्चित रूप से टेप कर रहा था" और यहाँ तक कि इसकी सुरक्षित लाइन भी। उनका कहना है कि इसके परिणामस्वरूप , " प्रत्येक रसपूर्ण टेलीग्राम के लीक होने का भय था। हम उनमें से कुछ ही भेजते थे। कुछ अवसरों पर तो मैं स्वयं इजरायल आकर मौखिक रूप से रिपोर्ट देता था" ।
  • हायफा से 11 मील दूर इजरायल के जलक्षेत्र में नवम्बर 2004 में एक रहस्यपूर्ण छोटाजलपोत अमेरिकी निकला जिसने कि जून 1967 के USS Liberty's covert mission की यादें ताजा कर दीं।
खुफिया मामलों के विशेषज्ञ इजरायल पत्रकार योसी मेलमान ने पाया कि तेल अवीव में अमेरिकी सेना के सम्बद्ध अधिकारी परोक्ष रूप से सूचनायें एकत्र करते थे उनके अनुसार इजरायल के अधिकारियों को विश्वास था कि इजरायल के प्रमुख अधिकारियों तथा विदेशी मिशन की बातचीत पर नजर रखते थे। उनके निष्कर्ष के अनुसार अमेरिका की गुप्तचरी से "इजरायल की नीतियों के गहरे गोपनीय मामले बाहर आये"
  • इजरायल के गुप्तचर विभाग का आधिकारिक इतिहास 2008 में प्रकाशित हुआ( जैसा कि रायटर्स ने बताया) कि अमेरिका की गुप्तचर एजेंसियों ने तेल अवीव में दूतावास के सहारे इलेक्ट्रानिक आधार पर गुप्तचरी की और दूतावास के स्टाफ को गुप्त सूचनायें एकत्र करने का प्रशिक्षण दिया।
शिन बेट के सेवानिवृत्त गुप्तचर अधिकारी बराक बेन जुर ने उसी संस्करण में लिखा, " अमेरिका इजरायल की गैर परम्परागत क्षमता को जानने का प्रयास कर रहा था और साथ ही कि निर्णय लेने के स्तर पर क्या चल रहा है"
  • 31 अक्टूबर ,2008 को ( विकीलीक्स द्वारा जारी) विदेश मंत्री कोंडोलिसा राइस के नाम से जारी 5,000 शब्दों के घोषणा पत्र में उनकी सूची थी जिनके बारे में राज्य को सूचना चाहिये थी। इस बेहद लम्बी सूची में , " आतंकवादी आक्रमणों के बदले में की जाने वाली सैन्य कार्रवाई को निर्धारित करने के लिये इजरायल की निर्णय लेने की प्रक्रिया की खुफिया जानकारी", " पश्चिमी तट में " बस्ती और उसके विकास" में इजरायल की सरकार की भूमिका का साक्ष्य", हमास के विरुद्ध इजरायल सुरक्षा सेना की कार्रवाई का विवरण, " जिसमें कि लक्ष्य बनाकर की गयी हत्यायें वे तरीके और तकनीक जिन्हें कि थल सेना और वायु सेना ने प्रयोग किया", " सरकार और सैन्य अधिकारियों सहित खुफिया और सुरक्षा सेवाओं द्वारा प्रयोग की जाने वाली सूचना तकनीक की सारी जानकारी"
  • राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी ने बडी मात्रा में हिब्रू भाषियों को लगाया जो कि इजरायल के सम्प्रेषण ( कम्युनिकेशन) को सुनकर बीच में रोकते थे। 2009 में इसके एक सदस्य शामाय के लिबोविज द्वारा सूचना लीक करने को लेकर उत्पन्न हुई विधिक समस्या से रहस्योद्घाटन हुआ कि उसने वाशिंगटन में इजरायल दूतावास के हिब्रू भाषा के वर्तालाप को अग्रेजी में भाषांतरित किया था, इससे पूरी तरह राबिनोविच की बात सत्य सिद्ध होती है।
पर्यवेक्षकों ने कुछ आवश्यक निष्कर्ष निकाले हैं: दो बार के प्रधानमंत्री यित्जाक राबिन ने कहा , " प्रत्येक कुछ वर्षों में इजरायल को पता चलता है कि अमेरिका की कोई और गुप्तचर समिति राज्य के विरुद्ध गठित हो गयी है" । इजरायल के एक गुप्तचर प्रतिरोध एजेंट ने कहा कि , " अमेरिका हर स्तर पर और हर समय हमारी गुप्तचरी करने का प्रयास करता है" । अमेरिकी लेखक और Intel Wars (2012) के लेखक मैथ्यू एम एड का मानना है कि वाशिंगटन ने तो " इजरायल की गुप्तचरी 1948 में इसकी स्थापना से पूर्व ही आरम्भ कर दी थी और इजरायल ने भी सदैव हमारी गुप्तचरी की"
जैसा कि एड ने संकेत किया कि गुप्तचरी का कार्य दोनों ओर समान है। यह सामान्य बात है जिसे कि दोनों पक्षों ने आम तौर पर स्वीकार कर लिया है। यह कोई चिंता की बात नहीं है जबकि ये दोनों सहयोगी अनेक चीजों में एक जैसे हैं जिसमें कि नैतिक मूल्य से विचारधारागत शत्रु तक और वे अनेक अवसरों पर साथ कार्य भी करते हैं। इसलिये पारस्परिक गुप्तचरी के कुछ बडे परिणाम भी हैं।
यदि उन्हें गुप्तचरी किसी भी प्रकार करना ही है तो क्यों न इजरायल को उस एंग्लोफोन "five eyes" grouping में शामिल कर लिया जाये जो कि एक दूसरे के प्रति गुप्तचरी न करने का वचन देता है? क्योंकि इजरायल युद्ध की स्थिति में है जैसा कि शिन बेट के बेन जुर ने कहा है, " अंत में अमेरिका आश्चर्यचकित नहीं होना चाहता यहाँ तक कि हमसे भी नहीं" । इसी प्रकार इजरायल के लोग भी आश्चर्यचकित नहीं होना चाहते यहाँ तक कि अमेरिका से भी नहीं।
इसलिये इस सम्बंध में हमें परिपक्व होना चाहिये और शीतल रहना चाहिये। राज्य गुप्तचरी करते हैं यहाँ तक कि अपने सहयोगियों की भी । चलिये ठीक है।
यह आलेख  अमिताभ त्रिपाठी द्वारा डैनियल पाइप्स द्वारा  Spy vs. Spy, America vs. Israel का हिंदी अनुवाद है.
ब्लाग स्वामी द्वारा मूल रूप से यथास्थिति प्रस्तुत किया जा रहा है. पोस्ट में प्रस्तुत फ़ोटोग्राफ़ गूगल से साभार प्राप्त हैं यदि किसी भी व्यक्ति,संस्था,सरकार का इस पर अधिकार हो तो कृपया मेल द्वारा अवगत करावें ताकि इन चित्रों को विलोपित किया जा सके : गिरीश बिल्लोरे "मुकुल" ब्लाग-स्वामी ब्लाग : मुकुल जी कहिन
द्वारा डैनियल पाइप्स
नेशनल रिव्यू आनलाइन
7 अगस्त, 2012
मौलिक अंग्रेजी सामग्री:  Spy vs. Spy, America vs. Israel
हिन्दी अनुवाद - अमिताभ त्रिपाठी