22 फ़र॰ 2008

तिरलोक सिंह की कहानी :

जबलपुर चौपाल: कामरेड त्रिलोक सिंह के बहाने से
एक व्यक्तित्व जो अंतस तक छू गया है । उनसे मेरा कोई खून का नाता तो नहीं किंतु नाता ज़रूर था । कमबख्त डिबेटिंग गज़ब चीज है बोलने को मिलते थे पाँच मिनट पढ़ना खूब पङता था । लगातार बक-बकाने के लिए कुछ भी मत पढिए ,1 घंटे बोलने के लिए चार किताबें , चार दिन तक पढिए, 5 मिनट बोलने के लिए सदा ही पढिए, ये किसी प्रोफेसर ने बताया था याद नहीं शायद वे राम दयाल कोष्टा जी थे ,सो मैं भी कभी जिज्ञासा बुक डिपो तो कभी पीपुल्स बुक सेंटर , जाया करता था। पीपुल्स बुक सेंटर में अक्सर तलाश ख़त्म हों जाती थी, वो दादा जो दूकान चलाते थे मेरी बात समझ झट ही किताब निकाल देते थे। मुझे नहीं पता था कि उन्होंनें जबलपुर को एक सूत्र में बाँध लिया है। नाम चीन लेखकों को कच्चा माल वही सौंपते है इस बात का पता मुझे तब चला जब पोस्टिंग वापस जबलपुर हुयी। दादा का अड्डा प्रोफेसर हनुमान वर्मा जी का बंगला था। वहीं से दादा का दिन शुरू होता सायकल,एक दो झोले किताबों से भरे , कैरियर में दबी कुछ पत्रिकाएँ , जेब में डायरी, अतरे दूसरे दिन आने लगे मलय जी के बेटे हिसाब बनवाने,आते या जाते समय मुझ से मिलना न भूलने वाले व्यक्तित्व ..... को मैंने एक बार बड़ी सूक्ष्मता से देखा तो पता चला दादा के दिल में भी उतने ही घाव हें जितने किसी युद्धरत सैनिक के शरीर,पे हुआ करतें हैं।
कर्मयोगी कृष्ण सा उनका व्यक्तित्व, मुझे मोहित करने में सदा हे सफल होता..... ठाकुर दादा,इरफान,मलय जी,अरुण पांडे,जगदीश जटिया,रमेश सैनी,के अलावा,ढेर सारे साहित्यकार के घर जाकर किताबें पढ़वाना तिरलोक जी का पेशा था। पैसे की फिक्र कभी नहीं की जिसने दिया उसे पढ़वाया , जिसके पास पैसा नहीं था या जिसने नही दिया उसे भी पढवाया । कामरेड की मास्को यात्रा , संस्कार धानी के साहित्यिक आरोह अवरोहों , संस्थाओं की जुड़्न-टूटन को खूब करीब से देख कर भी दादा ने इस के उसे नहीं कही। जो दादा के पसीने को पी गए उसे भी कामरेड ने कभी नहीं लताडा कभी मुझे ज़रूर फर्जी उन साहित्यकारों से कोफ्त हुई जिनने दादा का पैसा दबाया ।
कई बार कहा " दादा अमुक जी से बात करूं...?
रहने दो ...?
यानी गज़ब का धीरज ।
सूरज राय "सूरज" ने अपने ग़ज़ल संग्रह के विमोचन के लिए अपनी मान के अलावा मंच पे अगर किसी से आशीष पाया तो वो थे :"तिरलोक सिंह जी "। इधर मेरी सहचरी ने भी कर्मयोगी के पाँव पखार ही लिए। हुआ यूँ कि सुबह सवेरे दादा मुझसे मिलने आए किताब लेकर आंखों में दिखना कम हों गया था,फ़िर भी आए पैदल । सड़क को शौचालय बनाकर गंदगी फैलाने वाले का मल उनके सेंडिल में.... मेन गेट से सीढियों तक गंदगी के निशान छपाते ऊपर आ गए दादा. अपने आप को अपराधी ठहरा रहे थे जैसे कोई बच्चा गलती करके सामने खडा हो. इधर मेरा मन रो रहा था कि इतना अपनापन क्यों हो गया कि शरीर को कष्ट देकर आना पड़ा दादा को .संयुक्त परिवार के कुछ सदस्यों को आपत्ति हुयी की गंदगी से सना बूढा आदमी गंदगी परोस गया गेट से सीढी तक . सुलभा के मन में करूणा ने जोर मारा . उनके पैर धुलाने लगी . मानव धर्म के आधार में करुणा का महत्त्व सुलभा से बेहतर कौन समझ पाया होगा तब. . तिरलोक जी का आशीर्वाद लेकर सुलभा ने जाने कितना कुछ हासिल किया मुझे नहीं मालूम . मेरे और अन्य साहित्यकारों के बीच के सेतु तिरलोक जी फिर एकाध बार ही आए अब तो बस आतीं हैं उनकी यादें दस्तक देने मन के दरवाजे तक ऐसा सभी साथी महसूस करते हैं.

20 फ़र॰ 2008

तनवीर ने मेरी यह रचना

सत्य के पुजारी,
पाडकास्ट पे सुनिए मेरी बात



सम्बंधों की व्यावसायिकता और व्यवसायिकता के लिये सम्बंधों के लिये जाने जाना वाला यह समय कुल मिलाकर जड़ता का समय है। जीवनों के बीच केवल सम्बंध शब्द के अर्थ को समझना है तो थोड़ा सा बाजारवाद पर नज़र डालें। मैं यदि एक वस्तु बेच रहा हूँ तो ये बाजारवाद आप के लिये मुझमें केवल एक खरीददार का भाव पैदा कर देना होता है और आज इसकी खास ज़रूरत है। यदि विक्रेता के तौर पर यदि मैं यह कर सका तो तय है कि मैं सफल हूँ, व्यवसायिकता के लिये योग्य हूँ।

तुमसे मेरा न कोई लेना देना था, न रहेगा, रहेगी तुम्हारे पास मेरी बेची हुई वस्तु और मेरे पास तुम्हारा पैसा जो कल पूँजी बन कर निगलने को आतुर होगा - समूचे मानव मूल्य।

घबराईए मत बदलते दौर में पूँजीवाद के बारे में मैं नकारात्मक नहीं हूँ। मैं तो सम्बंधों की व्यवसायिकता बनाम व्यवसायिकता के लिये सम्बंध पर एक विमर्श करना चाहता हूँ।

प्रथमत: सफल प्रोफेशनल्स के मामले में आप सहमत हो ही गए होगें।

नहीं तो अब हो जाएंगे- एक बार एक अधिकारी ने सम्पूर्ण उर्जा का दोहन कर उसके मातहत को जाते-जाते कहा- “तुमसे मेरे बेहतरीन प्रोफेशनल रिलेशन थे, इसके अलावा और कुछ नहीं।”

सम्बंधों का रसायन समझ मातहत ने अब अपनी क्षमता और भावात्मकता को पृथक-पृथक कर दिया।

क्षमता के सहारे व्यवसायिक व्यापारिक सम्बंधों का निवर्हन करता- उसके मन में अब अपने संस्थान के लोगों से प्रबंधन से सिर्फ केवल व्यवसायिक सम्बंध हैं।

यह तो संस्थानों की बात है। यहाँ यह एक हद तक जायज है। हद तो तब हो गई- संवेदनाओं की वकालत करने वाला एक शख्स -शहर में अपने अव्यवसायिक होने का डिण्डौरा मण्डला से डिण्डौरी तक पीट मारा। वो और उसके चेले-चपाटी जुट गए, अव्यवसायिकता की आड़ में व्यवसायिकता के ताने-बाने बुनने। सफल भी रहे- बहुतेरों को अपने सौम्य व्यक्तित्व के सहारे बेवकूफ बनाने में।

कुछ तो मूर्ख नहीं बने, वो उसके लिये भात का कंकड़ ज़रूर बने।
सुधि पाठकों - हमारे इर्द गिर्द अब केवल ऐसे लोग ही रह गए हैं उन लोगों की सूची कम होती जा रही है। जो मानवीय गुणों के आधार पर सम्बंध बनाते हैं।

कमोवेश सियासत में भी यही सब कुछ है उन भाई ने बड़ी गर्मजोशी से हमारा किया। माँ-बाबूजी ओर यहाँ तक कि मेरे उन बच्चों के हालचाल भी जाने जो मेरे हैं हीं नहीं। जैसे पूछा-

“गुड्डू बेटा कैसा है।”
“भैया मेरी 2 बेटियाँ हैं।”
“अरे हाँ- सॉरी भैया- गुड़िया कैसी है, भाभी जी ठीक हैं। वगैरा-वगैरा। यह बातचीत के दौरान उनने बता दिया कि हमारा और उनका बरसों पुराना फेविकोलिया-रिश्ता है।

हमारे बीच रिश्ता है तो जरूर पर उन भाई साहब को आज क्या ज़रूरत आन पड़ी। इतनी पुरानी बातें उखाड़ने की। मेरे दिमाग में कुछ चल ही रहा था कि भाई साहब बोल पड़े - “बिल्लोरे जी चुनाव में अपन को टिकट मिल गया है।”

“कहाँ से, बधाई हो सर”
“.... क्षेत्र से”
“मैं तो दूसरे क्षेत्र में रह रहा हूँ। यह पुष्टि होते ही कि मैं उनके क्षेत्र में अब वोट टव्ज्म् के रूप में निवास नहीं कर रहा हूँ। मेरे परिवार के 10 वोटों का घाटा सदमा सा लगा उन्हें- बोले – “अच्छा चलूं जी !”

पहली बार मुझे लगा मेरी ज़िंदगी कितनी बेकार है, मैं मैं नहीं वोट हूँ।

15 फ़र॰ 2008

नार्मदेय ब्राह्मण समाज के स्नेह सम्मेलन में

वरिष्ठ नागरिक श्री काशीनाथ बिल्लोरे
ने अपने भाषण में कहा:-












मुख्य अतिथि पंडित राम कृष्ण बलवटे
की अभिव्यक्ति
नारम देव [नार्मदेय]ब्राहमण समाज में दहेज़ लिया जाना अपराध माना जाता है भारत में एक मात्र यही ब्राम्हण जाती है। गुजराती,मराठी,राजस्थानी,सभी सांस्कृतिक परम्पराओं को अपने में सजोये इस जाति के लोग साहसी,निर्भीक,जुझारू प्रकृति के होते है।

13 फ़र॰ 2008

चोरी या तकनीकी गलती



मेरी भास्कर में छप चुकी रचना का तनवीर जाफरी के नाम से प्रकाशन

जीवन की बंजर भूमि में
तनवीर जाफ़री

सम्बंधों की व्यावसायिकता और व्यवसायिकता के लिये सम्बंधों के लिये जाने जाना वाला यह समय कुल मिलाकर जड़ता का समय है। जीवनों के बीच केवल सम्बंध शब्द के अर्थ को समझना है तो थोड़ा सा बाजारवाद पर नज़र डालें। मैं यदि एक वस्तु बेच रहा हूँ तो ये बाजारवाद आप के लिये मुझमें केवल एक खरीददार का भाव पैदा कर देना होता है और आज इसकी खास ज़रूरत है। यदि विक्रेता के तौर पर यदि मैं यह कर सका तो तय है कि मैं सफल हूँ, व्यवसायिकता के लिये योग्य हूँ।

तुमसे मेरा न कोई लेना देना था, न रहेगा, रहेगी तुम्हारे पास मेरी बेची हुई वस्तु और मेरे पास तुम्हारा पैसा जो कल पूँजी बन कर निगलने को आतुर होगा - समूचे मानव मूल्य।

घबराईए मत बदलते दौर में पूँजीवाद के बारे में मैं नकारात्मक नहीं हूँ। मैं तो सम्बंधों की व्यवसायिकता बनाम व्यवसायिकता के लिये सम्बंध पर एक विमर्श करना चाहता हूँ।

प्रथमत: सफल प्रोफेशनल्स के मामले में आप सहमत हो ही गए होगें।

नहीं तो अब हो जाएंगे- एक बार एक अधिकारी ने सम्पूर्ण उर्जा का दोहन कर उसके मातहत को जाते-जाते कहा- “तुमसे मेरे बेहतरीन प्रोफेशनल रिलेशन थे, इसके अलावा और कुछ नहीं।”

सम्बंधों का रसायन समझ मातहत ने अब अपनी क्षमता और भावात्मकता को पृथक-पृथक कर दिया।

क्षमता के सहारे व्यवसायिक व्यापारिक सम्बंधों का निवर्हन करता- उसके मन में अब अपने संस्थान के लोगों से प्रबंधन से सिर्फ केवल व्यवसायिक सम्बंध हैं।

यह तो संस्थानों की बात है। यहाँ यह एक हद तक जायज है। हद तो तब हो गई- संवेदनाओं की वकालत करने वाला एक शख्स -शहर में अपने अव्यवसायिक होने का डिण्डौरा मण्डला से डिण्डौरी तक पीट मारा। वो और उसके चेले-चपाटी जुट गए, अव्यवसायिकता की आड़ में व्यवसायिकता के ताने-बाने बुनने। सफल भी रहे- बहुतेरों को अपने सौम्य व्यक्तित्व के सहारे बेवकूफ बनाने में।

कुछ तो मूर्ख नहीं बने, वो उसके लिये भात का कंकड़ ज़रूर बने।
सुधि पाठकों - हमारे इर्द गिर्द अब केवल ऐसे लोग ही रह गए हैं उन लोगों की सूची कम होती जा रही है। जो मानवीय गुणों के आधार पर सम्बंध बनाते हैं।

कमोवेश सियासत में भी यही सब कुछ है उन भाई ने बड़ी गर्मजोशी से हमारा किया। माँ-बाबूजी ओर यहाँ तक कि मेरे उन बच्चों के हालचाल भी जाने जो मेरे हैं हीं नहीं। जैसे पूछा-

“गुड्डू बेटा कैसा है।”
“भैया मेरी 2 बेटियाँ हैं।”
“अरे हाँ- सॉरी भैया- गुड़िया कैसी है, भाभी जी ठीक हैं। वगैरा-वगैरा। यह बातचीत के दौरान उनने बता दिया कि हमारा और उनका बरसों पुराना फेविकोलिया-रिश्ता है।

हमारे बीच रिश्ता है तो जरूर पर उन भाई साहब को आज क्या ज़रूरत आन पड़ी। इतनी पुरानी बातें उखाड़ने की। मेरे दिमाग में कुछ चल ही रहा था कि भाई साहब बोल पड़े - “बिल्लोरे जी चुनाव में अपन को टिकट मिल गया है।”

“कहाँ से, बधाई हो सर”
“.... क्षेत्र से”
“मैं तो दूसरे क्षेत्र में रह रहा हूँ। यह पुष्टि होते ही कि मैं उनके क्षेत्र में अब वोट टव्ज्म् के रूप में निवास नहीं कर रहा हूँ। मेरे परिवार के 10 वोटों का घाटा सदमा सा लगा उन्हें- बोले – “अच्छा चलूं जी !”

पहली बार मुझे लगा मेरी ज़िंदगी कितनी बेकार है, मैं मैं नहीं वोट हूँ।
तनवीर जाफ़री
सदस्य हरियाणा साहित्य अकादमी
2240/2, नाहन हाऊस
अम्बाला शहर, हरियाणा

12 फ़र॰ 2008

नई दुनिया जबलपुर पर ब्लॉग-चर्चा

जबलपुर के दैनिक अखबार ने ब्लॉग पर चर्चा की है आज यहाँ क्लिक कीजिए => नई दुनिया जबलपुर पर ब्लॉग-चर्चा

श्रृद्धांजलि

"म० प्र० के स्कूल शिक्षा मंत्री लक्ष्मण सिंह गौड़ के असामयिक निधन पर जबलपुर स्तब्ध है.... इस
महान व्यक्तित्व के लिए हमारी भावपूर्ण श्रृद्धांजलि "

" मन पीडा अरु अवसादों के सागर में गोते खाता है......
रह-रह उनका उजाला मस्तक स्मृतियों में आता है.....!!"

2 फ़र॰ 2008

दोहे

ब्लागिंग को ऐसो नशा हों गए लबरा मौन !
ब्लॉगर बीवी से कहें हम आपके कौन ....?

मिली पुरानी प्रेमिका दो बच्चों के साथ
मामा कह परिचय मिला,मन हों गया उदास ।

कबिरा चुगली चाकरी चलती संगै-साथ
चुगली बिन ये चाकरी ,ज्यों बिन घी का भात ।
अफसर करे न चाकरी ,बाबू करे न काम
पेपर आगे तब चलै जब पहुंचे पूरे दाम .
कहत मुकुल संसार में भाँती-भाँती के लोग
कछु तो पिटबे जोग हैं कछु अब्हई पिटबे जोग ।

दोहे दुविधा दे रहे ,गीत दे रहे कष्ट
पद्य वसंती क्या गढ़ू मौसम ही है भ्रष्ट ।